Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
View full book text
________________
५.८
प्रमेयकमलमार्तण्डे
स्वतन्त्रस्वरूपः, भावसाधना तु क्रिया स्वार्थनिर्णीतिस्वभावा इति कथञ्चिद्भदाभ्युपगमादेव कार्यकारणभावस्याप्यविरोधः।
यच्चोच्यते-पात्मव्यतिरिक्तक्रियाकारि प्रमाणं कारकत्वाद्वास्यादिवत् ; तत्र कथञ्चिद्भदेसाध्ये सिद्धसाध्यता, प्रज्ञाननिवृत्त स्तद्धमंतया हानादेश्च तत्कार्यतया प्रमाणात्कथञ्चिद्भ दाभ्युपगमात् । सर्वथा भेदे तु साध्ये साध्य विकलो दृष्टान्तः; वास्यादिना हि काष्ठादेश्छिदा निरूप्यमाणा छेद्यद्रव्यानुप्रवेशलक्षणैवावतिष्ठते । स चानुप्रवेशो वास्यादेरात्मगत एव धर्मो नार्थान्तरम् । ननु छिदा काष्ठस्था वास्यादिस्तु देवदनस्थ इत्यनयोर्भेद एव; इत्यप्यसुन्दरम् ; सर्वथा भेदस्यैव मसिद्ध :, सत्त्वादिनाऽ
कर्तृ साधन में यः प्रमिमीते सः प्रमाता इसप्रकार स्वतन्त्र स्वरूप कर्ता की विवक्षा होती है। भाव साधन में स्वपर की निश्चयात्मक ज्ञप्तिक्रिया दिखायी जाती है “प्रमितिः प्रमाणं" यह फलस्वरूप है। इसतरह कथंचित भेद स्वीकार करने से हो कार्य कारण भाव भी सिद्ध होता है, कोई विरोध नहीं पाता । परवादी का कहना है कि प्रात्मा से पृथक् क्रिया को करने वाला प्रमाण होता है, क्योंकि यह कारक है, जैसे वसूला आदि कारक होने से कर्ता पुरुष से पृथक क्रिया को करते हैं, इस पर हम जैन का कहना है कि यदि अात्मा से प्रमाण को कथंचित् भिन्न सिद्ध करना है तो सिद्ध साध्यता है, क्योंकि हम जैन ने भी अज्ञान निवृत्ति को प्रमाण का धर्म माना है और हानादिक उसके [धर्म के कार्य माने हैं, अत: प्रमाण से फल का या प्रमाता का कथंचित् भेद मानना इष्ट है । यदि इन प्रमाणादि में सर्वथा भेद सिद्ध करेंगे तो उस साध्य में वसूले का दृष्टांत साध्य विकल ठहरेगा, इसी को स्पष्ट करते हैं-वसूला आदि द्वारा काष्ठ आदि की जो छेदन क्रिया होती है उस क्रिया को देखते हैं तो वह छेद्यद्रव्य-काष्ठादि में अनुप्रविष्ट हुई ही सिद्ध होती है, वसूला लकड़ी में प्रवेश करके छेदता है यह जो प्रवेश हुअा वह स्वयं वसूले का ही परिणमन या धर्म है अर्थान्तर नहीं अतः शंकाकार का जो कहना था कि कर्त्ता प्रादि से करण पृथक-भिन्न ही होना चाहिये, प्रमाता आदि से प्रमाण भिन्न ही होना चाहिये, यह कहना उसीके वसूले के दृष्टांत द्वारा बाधित होता है।
शंका-छेदन क्रिया तो काष्ठ में हो रही और वसूला देवदत्त के हाथ में स्थित है इसतरह क्रिया और करण इनमें भेद ही रहता है ?
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org