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फलस्वरूपविचारः द्विविधं हि प्रमाणस्य फलं ततो भिन्नम्, अभिन्न च। तत्राज्ञान निवृत्तिः प्रमाणादभिन्न फलम् । ननु चाज्ञाननिवृत्तिः प्रमाणभूतज्ञानमेव, न तदेव तस्यैव कार्य युक्त विरोधात्, तत्कुतोसौ प्रमाणफलम् ? इत्यनुपपन्नम् ; यतोऽज्ञानमज्ञप्तिः स्वपररूपयोामोहः, तस्य निवृत्तियथावत्तद्रूपयोप्तिः , प्रमाणधर्मत्वात् तत्कार्यतया न विरोधमध्यास्ते । स्वविषये हि स्वार्थस्वरूपे प्रमाणस्य व्यामोहविच्छेदा
सूत्रार्थ-अज्ञान का दूर होना प्रमाण का फल है, तथा हेय पदार्थ में हेयत्व की-त्याग-छोड़ने की बुद्धि होना, उपादेय में ग्रहण की बुद्धि होना और उपेक्षणीय वस्तु में उपेक्षाबुद्धि होना प्रमाण का फल है। यह प्रमाण का फल प्रमाण से कथंचित् भिन्न है और कथंचित् अभिन्न भी है। किसी भी वस्तु को जानने से तत्संबंधो प्रज्ञान दूर होता है, यह प्रमाण का-जानने का फल [लाभ] है, जिस वस्तु को जाना है उसमें यह मेरे लिये उपयोगी वस्तु है ऐसा जानना उपादेय बुद्धि कहलाती है यह कार्य भी प्रमाण का होने से उसका फल कहलाता है। तथा हानिकारक पदार्थ में यह छोड़ने योग्य है ऐसी प्रतीति होना भी प्रमाण का फल है । जो न उपयोगी है और न हानिकारक है ऐसे पदार्थों में उपेक्षाबुद्धि होना भी प्रमाण का हो कार्य है । यह प्रमाण का फल प्रमाण से भिन्न होता है तथा अभिन्न भी होता है । जो अज्ञान की निवृत्ति होना रूप फल है वह तो प्रमाण से अभिन्न है।
शंका-अज्ञान निवृत्ति होना प्रमाणभूत ज्ञान ही है फिर उसे प्रमाण का कार्य कैसे कह सकते हैं ? यदि कहेंगे तो विरुद्ध होगा, अतः प्रमाण का फल प्रज्ञान निवृत्ति है ऐसा कहना किस तरह सिद्ध होगा ?
समाधान—यह शंका ठोक नहीं, अज्ञान जो होता है वह नहीं जानने रूप हुग्रा करता है स्व परका व्यामोहरूप होता है उसकी निवृत्ति होने पर जैसा का तैसा स्त्र परका जानना होता है यह प्रमाण का धर्म है अत: अज्ञान निवृत्ति प्रमाण का कार्य है [फल है] ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं होता, यदि प्रमाण अपने विषयभूत स्व पर अर्थ के स्वरूप में होने वाला व्यामोह [अज्ञान विपर्ययादि] दूर नहीं कर सकता है तो वह बौद्ध के निर्विकल्प दर्शन और वैशेषिक के सन्निकर्ष के समान होने से प्रमाणभूत नहीं होगा । अर्थात् निर्विकल्प दर्शन स्वविषयसम्बन्धी अज्ञान को-व्यामोह को दूर नहीं करता सन्निकर्ष भी प्रज्ञान को दूर नहीं करता अतः अप्रमाण है वैसे यदि प्रमाण अज्ञान
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