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धर्माधर्मद्रव्यविचारः
४६६ ङ्गात्, कालात्मदिक्सामान्यसमवायकार्यस्यापि योगपद्यादिप्रत्ययस्य बुद्धयादेः 'इदमतः पूर्वेण' इत्यादिप्रत्ययस्य अन्वयज्ञानस्य 'इहेदम्' इति प्रत्ययस्य च नभोनिमित्तस्योपपत्तेस्तस्य सर्वत्र सर्वदा सद्भावात् । कार्यविशेषात्कालादिनिमित्तभेदव्यवस्थायाम् तत एव धर्मादिनिमित्तभेदव्यवस्थाप्यस्तु सर्वथा विशेषाभावात् ।
एतेनादृष्टनिमित्तत्वमष्यासां प्रत्याख्यातम् ; पुद्गलानामदृष्टासम्भवाच्च । ये यदात्मोपभोग्याः
समाधान-इसतरह माना जाय तो आकाश आदि अनेक सर्वगत पदार्थों की कल्पना करना व्यर्थ ठहरता है, वैशेषिक आदि परवादी के यहां बताया है कि काल, आत्मा, दिशा सामान्य, और समवाय ये सर्वदा सर्वगत हैं, काल द्रव्य का कार्य युगपत्, चिर, क्षिप्र आदि का ज्ञान कराना है, इस कार्य से पृथक् ही आत्म द्रव्य का कार्य है वह बुद्धि आदि का निमित्त है। दिशा द्रव्य का कार्य 'यहां से यह पूर्व में है इत्यादि ज्ञान को कराना है । "यह गौ है यह भी गौ है" इत्यादि रूप से अन्वय ज्ञान का हेतु सामान्य नामा सर्वगत पदार्थ है और इहेदं प्रत्ययरूप कार्य को समवाय करता है। उक्त निखिल कार्य एक आकाश के निमित्त से होना मानना चाहिये क्योंकि आकाश का सर्वत्र सर्वदा सद्भाव है।
शंका-कालादि द्रव्यों का पथक पृथक विशेष कार्य देखकर इन विभिन्न कार्यों का विभिन्न निमित्त होना चाहिये इत्यादि रूप से इनको सिद्ध किया है ।
समाधान-इसीप्रकार धर्म और अधर्म द्रव्य को सिद्ध करना चाहिए, इनका भी गति और स्थितिरूप विभिन्न कार्य देखते हैं अतः इन कार्यों का कोई साधारण निमित्त अवश्य है ऐसा अनुमान द्वारा आकाश द्रव्य से भिन्न द्रव्य रूप इनको सिद्ध किया जाता है । आकाश, काल आदि के समान ये भी सिद्ध होते हैं। उभयत्र कोई विशेष भेद नहीं है ।
कोई कहे कि गति स्थितियों का निमित्त कारण अदृष्ट को माना जाय तो वह ठीक नहीं, इस मान्यता का भो पहले के समान खण्डन हुग्रा समझना चाहिए तथा यह भी बात है कि यदि अदृष्ट के निमित्त से गति स्थिति होती है तो पुद्गलों में गमनादि नहीं हो सकेंगे, क्योंकि पुद्गल के अदृष्ट नहीं होता।
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