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प्रमेयकमलमार्तण्डे
न चेदमसिद्धम् ; अनाश्रितत्वे हि समवायस्य "षण्णामाश्रितत्वमन्यत्र नित्यद्रव्येभ्य" [ प्रश० भा० पृ. १६ ] इत्यस्य विरोधः । अथ न परमार्थतः समवायस्याश्रितत्वं नाम धर्मो येनानेकत्वं स्यात् किन्तूपचारात् । निमित्तं तूपचारस्य समवायिषु सत्सु समवायज्ञानम् । तत्त्वतो ह्याश्रितत्वेस्य स्वाश्रयविनाशे विनाशप्रसंगो गुणादिवत् ; इत्यप्ययुक्तम् ; विशेषपरित्यागेनाश्रितत्वसामान्यस्य हेतुत्वात्, दिगादीनामाश्रितत्वापत्तेश्च, मूर्तद्रव्येषूपलब्धिलक्षणप्राप्तेषु दिग्लिङ्गस्य 'इदमत: पूर्वेण' इत्यादिप्रत्ययस्य काललिङ्गस्य च परत्वापरत्वादिप्रत्ययस्य सद्भावात् । तथा च 'अन्यत्र नित्य द्रव्येभ्यः' इति विरुध्यते । सामान्यस्यानाश्रितत्वप्रसङ्गश्च ; आश्रयविनाशेप्यविनाशात् समवायवत् ।
होता है, अयुतसिद्ध अवयवी द्रव्य द्रव्याश्रितत्व हेतु प्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि यदि समवाय को अनाश्रित बतायेंगे तो "षण्णामाश्रितत्व मन्यत्र नित्य द्रव्येभ्यः" नित्य द्रव्यों को छोड़कर छह द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय पदार्थों के आश्रितपना है इत्यादि आपके ग्रन्थ से ही सिद्ध होता है कि समवाय अनाश्रित नहीं आश्रित ही है । अतः यहां समवाय को अनाश्रित बताना सिद्धांत से विरुद्ध होता है ।
वैशेषिक-सिद्धांत में समवाय का आश्रितपना कहा है वह मात्र उपचार से कहा है, परमार्थ से देखा जाय तो समवाय का स्वभाव आश्रित नहीं है, अतः समवाय को अनेकरूप मानना ठीक नहीं, समवाय को उपचार से नानारूप बताने का कारण तो यह है कि-समवायी द्रव्यों के होने पर “समवाय है" ऐसा समवाय का प्रतिभास होता है । यदि समवाय के वास्तविक प्राश्रितपना माने तो स्वाश्रय के नष्ट होने पर समवाय के विनाश का प्रसंग आयेगा । जैसे गुण प्राश्रय के नष्ट होने पर नष्ट होते हैं ?
जैन-यह कथन अयुक्त है, विशेष का परित्याग करके प्राश्रितत्व सामान्य को हेतु मानने पर उक्त दोष नहीं आता। अभिप्राय यह है कि गुण गुणी के आश्रित है, अवयव अवयवी के आश्रित है इत्यादि विशेष नियम न करके आश्रितत्व सामान्य को स्वीकारते हैं तो पाश्रय के नष्ट होने पर भी पाश्रितत्व सामान्य का नाश नहीं होता क्योंकि सामान्य नित्य होता है। तथा 'अन्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः' नित्य द्रव्यों को छोड़कर अन्य द्रव्य, गुण, कर्मादि में आश्रितपना होता है ऐसा वैशेषिक ने कहा था वह विरुद्ध है, दिशा आदि नित्य द्रव्यों में भी पाश्रितपना पाया जाता है, अब यही बताते हैं-उपलब्ध होने योग्य मूर्त्तद्रव्यों में ही दिशा का लिंग प्रतीति में आता है कि "यह यहां से पूर्व दिशा में है" तथा परत्व-अपरत्वादि काल द्रव्य का लिंग [ लक्षण या चिह्न विशेष ]
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