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प्रमेयकमलमात्तण्डे सर्वेषामस्त्येवेति । करिणकादी तोयस्य बन्धहेतुत्वोपलम्भात्तस्यैव स्नेहो विशेषगुणः; इत्यप्यसारम् ; भवता स्नेहरहितत्वेनाभ्युपगतस्यापि क्षीरजतुप्रभृतेर्बन्धहेतुत्वेन प्रतीतेः ।
स्नेहस्य गुणत्वाभ्युपगमे च काठिन्यमार्दवादेरपि गुणत्वाभ्युपगम : कर्त्तव्यः, तथा च तत्संख्याव्याघातः स्यात् । ननु काठिन्यादे: संयोगविशेषरूपत्वात्कथं गुणसंख्याव्याघातहेतुत्वम् ? तथा चोक्तम्"अवयवानां प्रशिथिलसंयोगो मृदुत्वम्” [
] इत्यादि ; तदप्यसङ्गतम् ; चक्षुषा संयोगेषु प्रतीयमानेष्वपि मार्दवादेरप्रतिभासनात् । यो हि यद्विशेषः स तस्मिन्प्रतीयमाने प्रतीयत एव यथा रूपे प्रतीयमाने तद्विशेषो नीलादिः; न प्रतीयते च संयोगेषु प्रतीयमानेष्वपि काठिन्यादिः, तस्मान्नासौ तद्विशेष इति । कटाद्यवयवानां प्रशिथिलसंयोगेपि मृदुत्वाप्रतीतेश्च, विशिष्टचर्माद्यवयवानामप्यप्रशिथिलसंयोगित्वेपि मृदुत्वोपलब्धेश्चेति ।
जैन-यह कथन असार है, बंध हेतु होने से जल में स्नेहगुण है ऐसा कहेंगे तो क्षीर, लाख, रस आदि बहत से ऐसे पदार्थ हैं जिनसे पाटे आदि का बंध [ गदना प्रोसनना ] होता है, अतः उनमें भी स्नेह गुण सिद्ध होगा। किन्तु आपने इन क्षीरादिको स्नेह गुण रहित माना है ।
तथा यह भी बात है कि यदि वैशेषिक स्नेह नामागुण स्वीकार करते हैं तो कठोर, मृदु इत्यादि गुण भी स्वीकार करने चाहिये, और इनको माने तो गुणों की संख्या का व्याघात हो जाता है ।
__ वैशेषिक-कठोरता आदि संयोग विशेषरूप हुआ करती है उससे हमारी गुणों की संख्या किसप्रकार बाधित हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती। कहा भी है-"अवयवानां प्रशिथिल संयोगः मृदुत्वम्" अवयवों का शिथिल संयोग होना मृदुत्व कहलाता है, इसीतरह घनिष्ट संयोग को काठिन्य कहते हैं, अत: कठोरतादि गुण नहीं है और उनसे गुणों की संख्या का व्याघात भी नहीं होता है ? ।
जैन-यह कथन असंगत है, नेत्र द्वारा संयोग के प्रतीत होने पर भी मृदुता आदि की प्रतीति नहीं होती है, जो जिसका विशेष होता है वह उसके प्रतीत होने पर अवश्य प्रतीत होता है, जैसे रूप के प्रतीत होने पर उसका विशेष नील भी प्रतीत होता है, संयोग के प्रतीत होने पर भी काठिन्य आदि स्वभाव प्रतीत नहीं होते अतः
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