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प्रमेयकमलमार्तण्डे __वेगाख्यस्तु संस्कारो न केवलं पृथिव्यादावेवास्ति अात्मन्यप्यस्य सम्भवात्, तस्यापि सक्रियत्वेन प्रसाधितत्वात् । न च क्रियातोऽर्थान्तरं वेगः; अस्याः शीघ्रोत्पादमात्रे वेगव्यवहारप्रसिद्धः। 'वेगेन गच्छति' इति प्रतीतेः क्रियातोर्थान्तरं वेगः; इत्यप्ययुक्तम् ; 'वेगेन गच्छति, शीघ्र गच्छति' इत्यनयोरेकत्वात् । न च कर्मणः करिम्भकत्वेऽनुपरमप्रसङ्गः; शब्दवत्तदुपरमोपपत्तेः । यथैव हि शब्दस्यशब्दान्तरारम्भकत्वेप्युपरमस्तथात्रापि । "कर्म कर्मसाध्यं न विद्यते" [ वैशे० सू० १।१।११ ] इत्यपि वचनमात्रत्वादविरोधकम् ।
संस्कार नामा गुण को पथक् मानकर उसके तीन भेद बताये थे, उनमें वेग नामा संस्कार को केवल पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और मन में माना किन्तु यह ठोक नहीं, आत्मा में भी वेग नामा संस्कार का अस्तित्व है, यदि कोई शंका करे कि-प्रात्मा निष्क्रिय होने से उसमें वेग कैसे सिद्ध होगा ? सो ऐसी शंका असत् है, आत्मा सक्रिय है इस बात को हम सिद्ध कर पाये हैं । तथा क्रिया से न्यारा वेग नामा गुण सिद्ध भी नहीं होता है, जो क्रिया शीघ्रता से हो उसे ही वेग कहते हैं ।
वैशेषिक-वेग से जा रहा है ऐसा प्रतीत होने से वेग को क्रिया से पृथक् मानना चाहिये ?
जैन-यह कथन अयुक्त है, वेगेन गच्छति कहो चाहे शीघ्रं गच्छति कहो दोनों का अर्थ एक ही है ।
वैशेषिक-वेग को गुणरूप न मानकर क्रियारूप माने तो क्रिया से वेगरूप क्रिया उत्पन्न होती है ऐप्ता अर्थ हुा । और क्रिया से क्रिया उत्पन्न होगी तो वह कभी रुकेगी नहीं ?
जैन-ऐसी बात नहीं है, शब्द के समान उसका भी रुकना हो सकता है, जिसप्रकार शब्द की उत्पत्ति शब्दांतर से होती है तो भी उसका उत्पन्न होना रुक जाता है उसीप्रकार क्रिया से क्रिया उत्पन्न होने पर वह रुक जाती है, आपके यहां “कर्म कर्मसाध्यं न विद्यते" क्रिया क्रियाद्वारा साध्य नहीं होती ऐसा कहा है वह तो प्रलापमात्र है, उससे प्रतीति सिद्ध वस्तु व्यवस्था में बाधा नहीं आती है।
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