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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
समानं तस्य दण्डाद्युल्लेखेन 'दण्डी' इत्यादिप्रत्ययानुत्पत्तेः । दण्डादेरभिधानयोजनाभावेपि 'अनेन वस्तुना तद्वानयम्' इत्यनुरागप्रतीति: 'संसृष्टा एते तन्तुपटादयः' इति सम्बन्धमात्रेपि तुल्या । केवलं सङ्केताभावात् 'श्रयं समवायः' इति व्यपदेशाभावः । प्रतिपन्नसमयस्तु दण्डादेरिव समवायस्यापि विशेषणताम भिधानयोजनाद्वारेण प्रतिपद्यते ।
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यच्चान्यत्समवाये बाधकमुच्यते - नानिष्पन्नयोः समवायः सम्बन्धिनोरनुत्पादे सम्बन्धाभावात् । निष्पन्नयोश्च संयोग एव । श्रसम्बन्धे चास्य 'समवायिनोः समवायः' इति व्यपदेशानुपपत्तिः ।
का विशेषणपना समाप्त नहीं होता, प्रर्थात् संकेत को जानने वाले को तो "दण्डी है" ऐसा ज्ञान होता है इसी तरह संकेत को नहीं जानने वाले " द्रव्य समवायी होते हैं" ऐसा ज्ञान नहीं कर पाते किन्तु संकेत के जानकार तो करते ही हैं ।
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शंका- - दण्ड में विशेषणपना इसलिये सिद्ध है कि संकेत को नहीं जानने वाले व्यक्ति दण्डी पुरुष को देखकर "यह दण्डी है" ऐसा नामपूर्वक उल्लेख नहीं करे किन्तु " इस वस्तु के कारण यह तद्वान है" ऐसा प्रतिभास तो हो जाता है ?
समाधान – इसी प्रकार " यह तन्तु वस्त्र इत्यादि पदार्थ संसृष्ट हैं" इत्यादि प्रतिभास संबंध मात्र में बिना संकेत के भी हो सकता है, दण्ड और समवाय में इसतरह समान ही प्रश्नोत्तर समझना चाहिये । संकेत के अभाव में तो केवल "यह समवाय है" ऐसा नामपूर्वक व्यवहार नहीं होता । [ किन्तु उसकी प्रतीति अवश्य होती है ] जो पुरुष संकेत को जानता है वह जिसप्रकार दण्डे के विशेषणपने को " दण्डी है" इत्यादि नाम योजना करके जानता है, उसीप्रकार समवाय के विशेषरणपने को समवाय के संकेत को जानने वाला पुरुष "समवायी द्रव्य है" इत्यादि नाम योजनापूर्वक जानता है | अतः सिद्ध होता है कि "समवायी द्रव्य है" इत्यादि प्रत्यय समवायरूप विशेषण का अस्तित्व निश्चित करता है ।
जैनादि परवादी की शंका - ग्रनिष्पन्न [अभी जो बने नहीं हैं ] ऐसे दो पदार्थों में समवाय होना अशक्य है, क्योंकि जिसका सम्बन्ध होना है ऐसे सम्बन्धी पदार्थों के हुए बिना सम्बन्ध का अभाव ही रहता है । यदि निष्पन्न पदार्थों में समवाय होता है ऐसा कहे तो संयोग ही कहलायेगा । तथा यह समवाय समवायी दो द्रव्यों से यदि सम्बद्ध है तो “समवायी का समवाय है" ऐसी संज्ञा नहीं हो सकती । समवायी से समवाय सम्बद्ध रहता है
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