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समवायपदार्थविचारः च विद्यते इति । ननु सर्वस्य वाच्यवाचकवर्गस्य विषय विषयिवर्गस्य च नियमेनायुतसिद्धसम्बन्धत्वासम्भवो युतसिद्धष्वप्यस्य सम्भवाद्घटतच्छब्दज्ञानवत्, अतो न व्यभिचारः; इत्यप्यसारम् ; वर्गापेक्षयापि लक्षणस्य विपक्षकदेशवृत्तेर्व्यभिचारित्वात् । इष्ट च विपक्षकदेशादव्यावृत्तस्य सर्वैरप्यनैकान्तिकत्वम् ।
यच्चोक्तम्-तन्तुपटादयः संयोगिनो न भवन्तीत्यादि; तत्सत्यम् ; तत्र तादात्म्योपगमात् ।
फिर भी इनका परस्पर में समवाय सम्बन्ध नहीं माना, तथा विषयभूत आत्मा और "अहं-मैं" इस रूप विषयी ज्ञान में प्रयुतसिद्धत्वादि मौजूद है तो भी समवाय संबंधपना नहीं माना। अर्थात् वाच्य वाचक पदार्थों में और विषयविषयीभूत पदार्थों में आपने समवाय होना स्वीकार नहीं किया किंतु इनमें समवाय लक्षण अवश्य है ।
वैशेषिक-जितने वाच्य-वाचक पदार्थ हैं और विषय-विषयीभूत पदार्थ हैं उन सबमें नियम से अयुतसिद्धपना नहीं है वाच्य-वाचकपना तो युतसिद्ध पदार्थों में भी रहता है, इसीतरह विषयविषयीभाव भी युतसिद्ध पदार्थों में देखा जाता है, जैसे घट पदार्थ और उसका वाचक घट शब्द ये दोनों यतसिद्ध हैं, एवं घटरूप विषय और उसका ज्ञानरूप विषयी ये दोनों युतसिद्ध हैं, इसलिये समवाय के लक्षण में व्यभिचार नहीं आता है ?
जैन-यह कथन असार है सभी वाच्य वाचक वर्ग और विषय विषयी वर्ग में यह समवाय का लक्षण न जाय किंतु उसके एक देश में जाता ही है। अतः विपक्ष के एक देश में लक्षण के चले जाने से वह लक्षण व्यभिचरित ही कहलायेगा सभी वादी परवादियों ने स्वीकार किया है कि जो लक्षण विपक्ष [अलक्ष्य] के देश में चला जाता है-उससे व्यावृत्त नहीं होता वह अनेकान्तिक [अतिव्याप्ति] दोष युक्त होता है ।
तन्तु और वस्त्रादि पदार्थ संयोगो नहीं होते [ संयोग संबंध युक्त नहीं होते ] इत्यादि जो कहा था वह कथन ठीक ही है, क्योंकि इन तन्तु वस्त्रादि पदार्थों में तादात्म्य स्वीकार किया गया है, संयोग नहीं ।
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