________________
कर्मपदार्थवाद:
४२१
ऋजुद्रव्यस्य कुटिलत्वकारणं च कर्माकुञ्चनम् , यथा ऋजुनोंगुल्यादिद्रव्यस्य येऽग्रावय वास्तेषामाकाशादिभिः स्वयंयोगिभिविभागे सति मूलप्रदेशैश्च संयोगे सति येन कर्मणांगुल्यादिरवयवी कुटिल: संपद्यते तदाकुञ्चनम् । तद्विपर्ययेण संयोगविभागोत्पत्ती येनावयवी ऋजुः सम्पद्यते तत्कर्म प्रसारणम् । अनियतदिग्देशर्यत्संयोगविभागकारणं तद्गमनम् । उत्क्षेपणादिकं तु चतुःप्रकारमपि कर्म नियतदिग्देशसंयोगविभागकारणमिति ।
तदेतत्पञ्चप्रकारतोपवर्णनं कर्मपदार्थस्याविचारित रमणीयम् ; देशाद्देशान्तरप्राप्तिहेतुः परिस्पन्दात्मको हि परिणामोऽर्थस्य कर्मोच्यते । उत्क्षेपणादीनां चात्रैवान्तर्भाव: । अत्रान्तर्भूतानामपि कञ्चिद्विशेषमादाय भेदेनाभिधाने भ्रमणस्प(स्य)न्दनादीनामप्यतो भेदेनाभिधानानुषङ्गात्कथं पञ्चप्रकारतैवास्य ?
प्रदेश से संयोग के कारणभूत क्रिया होती है [ऊपर की तरफ कोई चीज फेंकना तथा नीचे की तरफ कोई चीज गिराना, गिर जाना भी क्रमशः उत्क्षेपण और अवक्षेपण कहलाता है] सरल अवस्था में स्थित द्रव्य को कुटिल करने वाली क्रिया प्राकुचन कहलाती है, जैसे अंगुली आदि सीधी है उसके ऊपर के अवयवों का प्राकाश प्रदेशों के साथ स्वयं संयोग है उन प्रदेशों से विभाग होने पर और मूल प्रदेशों से संयोग होने पर जिस क्रिया से अंगुली आदि अवयवी कुटिल [ टेढ़ा ] हो जाता है वह आकुचन कर्म है । आकुचन से विपरीत संयोग विभाग उत्पन्न होने पर जिस क्रिया से अवयवी सरल हो जाता है वह प्रसारण नामा कर्म है, [अर्थात् अंगुली आदिका टेढा होना या सिकूड़ जाना किसी वस्तु का संकोचना पाकुचन है और फैलना प्रसारण है ] अनियत दिशा तथा देश द्वारा जो संयोग एवं विभाग का कारण वह गमन नामा कर्म है, उत्क्षेपण प्रादि चार प्रकार का कर्म तो नियत दिशा तथा आकाश प्रदेश के संयोग विभाग का कारण है और गमन कर्म अनियत दिशा तथा देश के सयोग विभाग का कारण है। इसतरह पांच प्रकार का कर्म है ।
जैन-यह पांच प्रकार का कर्मों का वर्णन अविचार पूर्ण है, देश से देशांतर प्राप्ति रूप पदार्थ का जो परिस्पंदात्मक [चलनात्मक] परिणाम है वह कर्म या क्रिया कहलाती है और इसी में उत्क्षेपण प्रादि कर्म का अन्तर्भाव हो जाता है, जब परिस्पंदात्मक परिणाम में सर्व क्रिया अन्तर्भूत है तब उसमें कुछ भेद विशेष को करके पृथक् नाम धर देना ठीक नहीं, अन्यथा भ्रमण, स्यंदन आदि को पृथक् कर्म मानना पड़ेगा। फिर कर्म के पांच ही भेद हैं यह कथन गलत ठहरेगा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org