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गुणपदार्थवादः . सुखदुःखेच्छादीनां चाबुद्धिरूपत्वे रूपादिवनात्मगुणता युक्ता, बुद्धिरूपत्वे चातो भेदेनाभिधानमयुक्तम् । कंचिद्विशेषमादाय बुद्ध्यात्मकानामप्यतो भेदेनाभिधाने अभिधाना (धादी) दीनामपि भेदेनाभिधानं कार्यम् । इत्यलमतिप्रसंगेन ।
गुरुत्वादीनां तु पुद्गलगुणत्वं युक्तमेव । 'प्रतीन्द्रियं गुरुत्वं पातोपलम्भेनानुमेयत्वात्' इत्येतन्न युक्तम् ; करतलाद्युपरिस्थिते द्रव्य विशेषे पातानुपलम्भेपि गुरुत्वस्य प्रतिभासनात् । रजःप्रभृतीनामपि
होता है । अर्थात् यह पर-बड़ा सौ वर्षीय पुरुष है, यह अपर-दस वर्षीय है और यह पुरुष मध्यम वय वाला-पचास वर्षीय इसतरह कालकृत परत्व, अपरत्व और मध्यत्व देखा जाता है, दिशा के निमित्त से परत्वापरत्व-जैसे यह पुरुष पर है-दूर दिशा में स्थित है, यह पुरुष अपर है-निकट दिशा में स्थित है, एवं यह पुरुष मध्य में है इसप्रकार परत्वापरत्व के साथ मध्यपने का व्यवहार देखा जाता है, इसलिये परत्व अपरत्व गुण के समान मध्यत्व नामा गुण भी प्रापको स्वीकार करना होगा किन्तु यह स्वीकृत नहीं प्रतः निश्चय होता है कि परत्व-अपरत्व नामके गुण प्रसिद्ध हैं।
सुख, दुःख, इच्छा इत्यादि गुणों को यदि अबूद्धि स्वरूप मानें तो वे आत्मा के गुण नहीं सिद्ध होते, जैसे रूप रस आदि अबुद्धि स्वरूप होने से आत्मा के गुण नहीं हैं। यदि इन सुखादिको बुद्धिस्वरूप मानते हैं तो इनका बुद्धि से भिन्न कथन अयुक्त है। यदि कुछ विशेषता को लेकर इन सुख प्रादि में भेद करेंगे तो नाम आदि का भी भेद रूप कथन करना होगा। इसतरह वैशेषिक के अभिमत सुखादि गुण भी सदोष लक्षण के कारण सिद्ध नहीं होते हैं, अब इस विषय में अधिक नहीं कहते हैं ।
गुरुत्व आदि गुण माने हैं वे पुद्गल द्रव्य के गुण हो तो ठीक है, किन्तु गुरुत्व गुण अतीन्द्रिय है पातसे [गिरने से] अनुमेय है-पातको देखकर उसका अनुमान हो जाता है कि इस वस्तु में गुरुत्व होगा, क्योंकि यह गिर पड़ी इत्यादि कथन अयुक्त है, केवल गिरने से गुरुत्व की प्रतीति नहीं होती। हाथ, मस्तकादि के ऊपर रखी हुई वस्तु नहीं गिरने पर भी उसका गुरुत्व प्रतिभासित होता है ।
शंका–धूली आदि का गुरुत्व क्यों नहीं प्रतीत होता ?
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