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प्रात्मद्रव्यवादः
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अमुमेव ह्यात्मानमाश्रित्यादृष्टं वर्तते, तेन संयुक्तानि सर्वाण्यप्याकृष्यमाणद्रव्याणि; इत्यप्ययुक्तम् । तस्य सर्वत्राविशेषेण सर्वस्याकर्षणानुषंगात् । अथ यददृष्टेन यज्जन्यते तददृष्टेन तदेवाकृष्यते न सर्वम् ; तहि देवदत्तशरीरारम्भकाणां परमाणूनां नित्यत्वेन तददृष्टाजन्यत्वात् कथं तददृष्टेनाकर्षणम् ? तथाप्याकर्षणेऽतिप्रसंग: । तन्नाद्यः पक्षो युक्तः ।
नापि द्वितीयः; तथाहि-यथा वायुः स्वयं देवदत्त प्रत्युपसर्पणवानन्येषां तृणादीनां तं प्रत्युपसर्पणहेतुस्तथाऽदृष्टमपि तं प्रत्युपसर्पत्स्वयमन्येषां तं प्रत्युपसर्पता हेतुः, द्वीपान्तरवत्तिद्रव्यसंयुक्तात्म
रहता है, अतः वे मणि आदिक अतिदूर हैं अदृष्ट से संबंधित नहीं हैं ऐसा कहना प्रसिद्ध है, बात यह है कि-इसी एक आत्मा का आश्रय लेकर अदृष्ट रहता है और उस व्यापक प्रात्मा में स्थित अदृष्ट द्वारा प्राकृष्यमाण सब द्रव्य [मणि मुक्तादि] संयुक्त हैं अतः उक्त क्रिया संभव है।
जैन-यह कथन प्रयुक्त है, जब आत्मा सर्वत्र समान रूप से मौजद है तब अदृष्ट अमक रत्नमरिण आदि को ही प्राकर्षित करता है ऐसा सिद्ध नहीं होता है, वह तो सभी मणि आदि को आकर्षित कर सकता है ।
वैशेषिक-जिस अदृष्ट से जो मणि आदि पैदा होते हैं वह अदृष्ट उन्हीं मणि आदि को आकर्षित करता है सबको नहीं ?
___ जैन- तो फिर देवदत्त के शरीर को बनाने वाले परमाणु नित्य होने से अदृष्ट द्वारा अजन्य हैं अतः वे अदृष्ट द्वारा किस प्रकार आकर्षित हो सकते हैं ? यदि अदृष्ट जन्य नहीं होकर भी आकर्षित होते हैं तो जैसे परमाणु आकर्षित हुए वैसे मणि पादिक भी आकर्षित होने का अतिप्रसंग आता है, अतः प्रथम पक्ष-देवदत्त के शरीर के आत्मप्रदेशों में स्थित अदृष्ट द्वीपांतर के मणि आदि को आकर्षित करता है ऐसा कहना सिद्ध नहीं हुआ।
दूसरा पक्ष-जो आत्मप्रदेश देवदत्त के शरीर में संयुक्त नहीं है द्वीपांतर के द्रव्य में संयुक्त हैं, उन आत्मप्रदेशों के अदृष्ट द्वारा द्वीपांतर के मणि मुक्ता देवदत्त के प्रति आकर्षित होते हैं, ऐसा कहना भी सिद्ध नहीं होता, अब उसी का विचार करते हैं-जैसे वायु स्वय दवदत्त के प्रति बहकर आती हुई अन्य तृण आदि पदार्थों को उसके प्रति आकर्षित करने में हेतु है, वैसे देवदत्त का द्वीपांतर जो अदृष्ट है वह स्वयं
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