Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे __यच्चान्यदुक्तम्-'सर्वगत प्रात्मा सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वादाकाशवत्' इति; तत्र किं स्वशरीर एव सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वं हेतुः, उत स्वशरीरवत्परशरीरेऽन्यत्र च ? तत्र प्रथमपक्षे विरुद्धो हेतुः, तत्रैव ततस्तस्य सर्वगतत्व सिद्धेः। द्वितीयपक्षे त्वसिद्धः, तथोपलम्भाभावात् । न खलु बुद्धयादयस्तद्गुणाः सर्वत्रोपलभ्यन्ते, अन्यथा प्रतिप्राणि सर्वज्ञत्वादिप्रसङ्गः ।
अन्य कोई आत्माको मानने की कल्पना व्यर्थ होती है, यदि अात्माको माने तो अवयव सहित मानना होगा, और सावयवी पदार्थ कार्यरूप एवं अनित्य होता है ऐसा आपका ही सिद्धांत होने से आत्माको अनित्य स्वीकार करना होगा।
वैशेषिक का कहना है कि आत्मा के गुण सर्वत्र उपलब्ध होते हैं अतः हम उसको अाकाश की तरह सर्वगत मानते हैं, इसपर प्रश्न होता है कि सर्वत्र गुण उपलब्ध होने का क्या अर्थ है अपने शरीर मात्र में सर्वत्र उपलब्ध होना, या अपने शरीर के समान पराये शरीर में एवं अन्यत्र-अंतराल में भी गुणों का उपलब्ध होना ? प्रथम पक्ष कहो तो विरुद्ध पड़ेगा, क्योंकि स्वशरीर मात्र में गुणों का उपलब्ध होना स्वीकार किया इससे गुणों का शरीर में ही सर्वगतत्व सिद्ध होगा न कि सर्व जगत में होने वाला सर्वगतत्व सिद्ध होगा, दूसरा पक्ष कहे तो हेतु प्रसिद्ध होता है, क्योंकि अपने शरीर के समान पराये शरीर एवं अन्यत्र आत्मा के गुणों की उपलब्धि होना प्रसिद्ध है, बुद्धि आदि प्रात्मा के गुण सर्वत्र उपलब्ध नहीं होते हैं, यदि पराये शरीरादि में भी अपने आत्मा के गुण उपलब्ध होते तो प्रत्येक प्राणी सर्वज्ञ बन जाता, एवं पराये दुःख सुख, हर्ष शोक आदि से स्वयं दुःखी आदि बन जाता ।
भावार्थ-आत्मा को सर्वगत मानते हैं तो जैसे हमारे शरीर में हमारी आत्मा है वैसे पराये शरीर में भी है तथा अन्यत्र सब जगह है, और सब जगह आत्मा है तो जैसे अपने शरीर का अनुभव होता है वैसे पराये शरीर तथा सब संसार के संपूर्ण पदार्थों का अनुभव होवेगा, फिर तो प्रत्येक प्राणी सर्वज्ञ कहलायेगा, क्योंकि उसका अात्मा सब जगह होने से सबको जान रहा है। तथा अपने शरीर के समान पराये शरीर में हमारी आत्मा है तो पराये दुःख सुख से हमें भी दुःखी, सुखी बनना पड़ेगा, किंतु ऐसा नहीं देखा जाता है । अत: आत्मा सर्वगत नहीं है।
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