Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे विभागाभावे कुतः संयोगनिवृत्तिरिति चेत् ? 'कर्मण एव' इति ब्रूमः । 'कर्ममात्रादपि तन्निवृत्तिः स्यात्' इत्यप्यदोषः; संयोगमात्रनिवृत्तेरिष्टत्वात् । संयोगविशेषनिवृत्तिस्तु कर्मविशेषात्, त्वन्मते ततो विभागविशेषोत्पत्तिवत् । कर्मणः संयोगोत्पादकत्वात्कथं तन्निवर्तकत्वमिति चेत् ? तहि हस्तबाणादिसंयोगस्य कर्मोत्पादकत्वोपलम्भात् कथं वृक्षादौ बाणादिसंयोगस्य तन्निवर्तकत्वं स्यात् ? अन्यस्य तन्निवर्तकत्वमन्यत्रापि समानम् । न खलु येनैव कर्मणा य: संयोगो जनितः स तेनैव निवर्त्यते इति ।
उपलब्ध नहीं होता है अतः उपचार की कल्पना भी अयुक्त है अर्थात् हिमाचल विन्ध्याचल में होने वाला विभाग एवं उसका ज्ञान प्रौपचारिक है और मेष आदि में होने वाला विभाग एवं उसका ज्ञान सत्य है ऐसा कहना असत् है ।
वैशेषिक-विभाग गुण को नहीं मानेंगे तो संयोग की निवृत्ति-हटना कैसे होगी ?
जैन-क्रिया से होगी ऐसा हम बतलाते हैं ।
वैशेषिक-कर्म से संयोग की निवृत्ति होती है तो किसी भी कर्म से क्रिया मात्र से संयोग निवृत्ति संभव होगी ?
जैन-यह कोई दोष की बात नहीं है, क्रिया मात्र से संयोग मात्र को निवृत्ति होना माना ही है, किन्तु संयोग विशेष की निवृत्ति तो क्रिया विशेष से होगी, जैसे कि आपके मत में संयोग विशेष की निवृत्ति से अर्थात् संयोग के हटने से विभाग विशेष की उत्पत्ति होना बताया है।
वैशेषिक-क्रिया संयोग को उत्पन्न करती है, वह संयोग की निवर्तक किस प्रकार हो सकती है ?
जैन-तो फिर हाथ और बाणादि के संयोग का उत्पादक कर्म [क्रिया है फिर वह वृक्षादि में बाणादि के संयोग का निवर्त्तक [ अर्थात् वृक्षादि में संयुक्त हुए बाणादि आगे नहीं जाते उक्त संयोग वहीं समाप्त होता है ] वह किसप्रकार है ? यदि कहा जाय कि हाथ और बाण के संयोग को उत्पन्न करने वाली क्रिया अन्य है और वृक्षादि में बाण के संयोग को समाप्त करने वाली क्रिया अर्थात् आगे बाण का नहीं
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