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गुणपदार्थवादः
३८६ 'एकादिप्रत्यया विशेष (ण)ग्रहणापेक्षा विशिष्ट प्रत्ययत्वाद्दण्डीत्यादिप्रत्ययवत्' इत्यनुमानतोपि न संख्यासिद्धिा; यतो यथा 'एको गुणोपि (ण:) बहवो गुणाः' इत्यादौ संख्यामन्तरेणाप्ये कादिबुद्धिस्तथा घटादिष्वप्यसहायादिस्वभावेष्वेकादिबुद्धिर्भविष्यतीत्यलमर्थान्तरभूतयकादिसंख्यया। न च गुणेषु संख्या सम्भवति ; अद्रव्यत्वात्त'षां तस्याश्च गुणत्वेन द्रव्याश्रितस्वात् । न च गुणेषूपचरितमेकत्वादि
उपलब्ध होने योग्य है। ऐसा संख्या का विशेषण प्रसिद्ध नहीं है, क्योंकि संख्या को दृश्य उपलब्ध होने योग्य मानते हैं। अापका सिद्धांत सूत्र है कि संख्या परिमाणानि पृथक्त्वं संयोगविभागौ परत्वापरत्वे कर्म च रूपि समवायाच्चाक्षुषाणि अर्थात् संख्या, परिमाण, पृथक्त्व संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, और कर्म ये सब रूपिका समवाय होने से चाक्षुष हैं-नेत्र द्वारा दृश्य हैं । इससे सिद्ध हुअा कि संख्या दृश्य है, फिर संख्येय के अतिरिक्त क्यों नहीं उपलब्ध होतो । अत: उपलब्ध नहीं होने से संख्या नामका गुण सिद्ध नहीं होता है।
__ संख्यानामा गुण को सिद्ध करने के लिए अनुमान दिया कि-एक है, दो है इत्यादि जो ज्ञान होता है वह विशेषण के ग्रहण की अपेक्षा लेकर होता है, क्योंकि यह विशिष्ट ज्ञान है, जैसे दण्डावाला है इत्यादि ज्ञान विशेषण को अपेक्षा लेकर होते हैं । किन्तु इस अनुमान से संख्या की सिद्धि नहीं होती है, कारण यह है कि-"एक गुण है, बहुत से गण हैं" इत्यादि ज्ञान बिना संख्या के होते हैं इनमें जैसे संख्या गण की अपेक्षा किये बिना संख्या का ज्ञान होना मानते हैं वैसे घट पट आदि पदार्थों में भी एक घट है इत्यादि संख्या का ज्ञान बिना संख्या गुण के हो सकता है, अर्थात् गणों की संख्या करने का जहां प्रसंग हो वहां बिना संख्या के गुणों की संख्या हो जाती है क्योंकि गुण में गण नहीं रह सकता जैसे गुणों में संख्या का बोध बिना संख्या गुण के होता है वैसा घटादि पदार्थों में हो जायगा, अतः उसके लिये संख्या गुण को कल्पना करना व्यर्थ है। गुणों में संख्या संभव नहीं, क्योंकि गुण अद्रव्य हैं और संख्या गुणरूप होने से द्रव्य के आश्रित रहती है ।
वैशेषिक-गुणों में जो संख्या का ज्ञान होता है वह उपचरित है वास्तविक
नहीं ?
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