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प्रमेयकमलमार्तण्डे
स्पर्शवत्त्वाद्वा पृथिव्यादिवत् । एवं जलानलयोरपि गन्धरसादिमत्ता प्रतिपत्तव्या । रूपरसगन्धस्पर्श मंतो हि पुद्गलास्तत्कथं तद्विकाराणां प्रतिनियम: ? रूपाद्याविर्भावतिरोभावमात्रं तु तत्राविरुद्धम्, जलकनकादिसंप्रयुक्तानले भासुररूपोष्णस्पर्शयोस्तिरोभावाविर्भाववत् ।
संख्यापि संख्येयार्थव्यतिरेकेणोपलब्धिलक्षणप्राप्ता नोपलभ्यते इत्यसती खरविषाणवत् । न च विशेषणमसिद्धम् तस्या दृश्यत्वेनेष्टेः । तथा च सूत्रम् - "संख्या परिमाणानि पृथक्त्वं संयोग विभागो परत्वापरत्वे कर्म च रूपिसमवायाच्चाक्षुषाणि " [ वैशे० सू० ४।१।११ ] इति ।
इन तीन द्रव्यों में ही रहता है ऐसा आपने कहा किन्तु ऐसा नहीं है रूपगुण वायु में भी रहता है, अनुमान प्रमाण से सिद्ध होता है कि वायु रूपादियुक्त है, क्योंकि पौद्गलिक है, स्पर्शादिमान होने से भी वायु में रूप की सिद्धि होती है, जैसे पृथिवी आदि में स्पर्शादिमानपना होने से रूप का अस्तित्व सिद्ध होता है । इसीप्रकार जल और अग्नि में गन्ध तथा रसादि गुण की सिद्धि होती है क्योंकि पुद्गल द्रव्य रूप, रस, गन्ध, स्पर्श इन चारों ही गुणों से युक्त हुआ करते हैं अतः पुद्गलों के विकार से बने हुए जल आदि में गुणों का नियम कैसे कर सकते हैं कि पृथिवी में गन्ध है इत्यादि ग्रर्थात् पृथिवी प्रादि चारों पदार्थों में एक एक में चारों चारों गुण नियम से पाये जाते हैं कोई भेद नहीं है । किन्तु किसी में रूपादिका प्राविर्भाव होता है, और किसी में तिरोभाव होता है, ऐसा आविर्भाव तिरोभाव आप भी तो मानते हैं, जल सुवर्ण प्रादि में जब अग्नि संयुक्त होती है तब उसमें भासुरता - चमकीलापन रूप का तिरोभाव होता है और उष्ण विर्भाव होता है, जैसे यहां पर जल में अग्नि के संयुक्त होने पर उस अग्नि का भासुरत्व तिरोधान हो जाता है वैसे ही वायु में रूपादिगुण रहते अवश्य हैं किन्तु स्पर्श आविर्भावरूप और शेष तीन तिरोभूत रहते हैं । इसीतरह गन्ध केवल पृथिवी में नहीं रहता किन्तु पृथिवी आदि चारों में रहता है इसलिये रूपादि गुणों का स्वरूप तथा आश्रय ये दोनों ही वैशेषिक के सिद्ध नहीं होते हैं ।
संख्यानामा गुण भी सिद्ध नहीं होता, अब इसको बताते हैं - संख्या संख्येयभूत पदार्थों से पृथक् नहीं है यदि पृथक् होती तो उपलब्ध होने योग्य होने से पदार्थों से पृथक् दिखायी देती किन्तु वह उपलब्ध नहीं होती ग्रतः निश्चित होता है कि गधे के सींग की तरह असत् है । हमने जो विशेषण दिया वह प्रसिद्ध भी नहीं है, अर्थात्
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