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प्रमेय कमलमार्त्तण्डे
श्रसमवायिकारणत्वं भवता नेष्यते तथैकत्वस्यापि तन्नेष्टव्यं तस्याऽभेदपर्यायत्वात् । श्रभेदभेदौ च स्वात्मपरात्मापेक्षौ रूपादिष्वपि भवतः । यथा चैकमभिन्नमिति पर्यायस्तथानेकं भिन्नमित्यपि । तथा च द्वित्वादिरप्यनेकत्व पर्यायः, तस्योत्पत्त्यादिकल्पना न कार्या ।
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कारण संख्या है, इस संख्या को नहीं माना जाय तो पदार्थों का परिमाण किस प्रकार होगा एवं उन पदार्थों का परिमाण बदलता रहता है वह भी किस प्रकार सिद्ध होगा ? जैन - यह कथन मनोरथ मात्र है, द्वित्वादि संख्या को बात ऐसी है कि जिस प्रकार भेद होने में कारण नहीं होता वैसे संख्या होने में कारण नहीं है । जैसे आप वैशेषिक कार्यों के भिन्नता में कारण की भिन्नता का प्रसमवायीकारण नहीं मानते हैं अर्थात् भिन्न भिन्न कार्यों का एक ही असमवायीकारण मानते हैं वैसे ही द्वित्वादि संख्या के प्रति एकत्व संख्या को श्रसमवायीकारणरूप नहीं मानना चाहिये क्योंकि यह एकत्व अभेद पर्याय स्वरूप है ।
एकत्व संख्या अभेद पर्यायरूप होकर भी अन्य संख्या के लिये समवायी बन जायगी ऐसा भी नहीं कहना क्योंकि भेद प्रभेद स्वमें प्रौर पर में अपेक्षा लेकर हुआ करते हैं जैसे रूप रस आदि में स्व और पर की अपेक्षा भेद और प्रभेद होता है अर्थात् रूप का अपने स्वयं के स्वरूप की अपेक्षा अभेद है और परकी अपेक्षा भेद है, रस का स्वरूप की अपेक्षा अभेद और परकी अपेक्षा भेद है । एकत्व यह एक अभिन्नरूप पर्याय है, ऐसे ही अनेकत्व भिन्नरूप पर्याय है, द्वित्वादि संख्या भी अनेकत्वरूप पर्याय ही है, अतः द्वित्वादि संख्या अनेक विषय वाली बुद्धि की अपेक्षा लेकर एकत्वरूप असमवायीकारण से निष्पन्न होती है इत्यादि कहना असत् है, द्वित्वादि तो पर्यायस्वरूप पदार्थ है और पदार्थ या पर्याय अपने कारण कलाप से स्वयं उत्पन्न हुआ है उसके लिये एकत्वरूप कारण की आवश्यकता नहीं है । अभिप्राय यह हुआ कि कोई वस्तु एक संख्या स्वरूप है कोई अनेक संख्यास्वरूप है यह तो वस्तु का निजी स्वरूप है पर्याय अथवा अवस्था है, यह अवस्था स्वतः परिवर्तित होती रहती है उसमें संख्यानामा कोई पदार्थ हो वह उसको एक अनेकरूप करता हो या एक अनेक, दो चार इत्यादि विशेषण जोड़ता हो याकि एक, दो आदि वस्तुओं में यह एक है, ये दो हैं इत्यादि प्रतिभास करानेवाला हो सो बात नहीं है ये कार्य वस्तु के निजी शक्ति से या स्वभाव से हुआ करते हैं, वस्तु की जैसी अवस्था या पर्याय भेद अथवा अभेद होता है उसमें वह स्वयं समर्थ है । आप
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