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प्रमेयकमलमार्तण्डे . एवं च गुणेष्वप्येकत्वादिव्यवहारोऽकष्टकल्पन: स्यात् । गणितव्यवहारश्च 'षट्पञ्चविंशतिभिः साधं शतम्' इत्यादि: सुगमः । तस्मादभिन्नं तावदेकमित्युच्यते, तदपरेणाभिन्नेन सह द्वे इति, ते त्वपरेणाभिन्नेन सह त्रीणीत्येवमादि: समयो लोके प्रसिद्धो गणितप्रसिद्धश्चैकत्वादिव्यवहारहेतुर्द्रष्टव्य इति ।
अथ द्वित्वबहुत्वसंख्याया द्वयणुकादिपरिमाणं प्रत्यसमवायिकारणत्वोपपत्ते: सद्भावसिद्धिः; तन्न; अस्यास्तदसमवायिकारणत्वे प्रमाणाभावात् । परिशेषोस्तीति चेत्, न; कारणपरिमाणस्यैवासमवायिकारणत्वसम्भवाद्पादिवत् ।
हो जायगा। तथा गणित व्यवहार भी सुगम होगा कि पच्चीस को छह से गुणा करने पर डेढ़ सौ होता है इत्यादि ।
अतः अभिन्न संख्येय [वस्तु] को 'एक' इसप्रकार कहते हैं वही अभिन्न एक अपर अभिन्न संख्येय के साथ जुड़कर 'दो' इस पर व्यवहृत होता है वे ही दो अपर संख्येय वस्तु के साथ जुड़कर तीन कहे जाते हैं इस तरह लोक में यह संकेत प्रसिद्ध है। तथा गणित प्रसिद्ध एकत्व आदि के व्यवहार का हेतु भी यही है ।
शंका-द्वयणुक आदि के परिमाण के प्रति द्वित्व, बहुत्व संख्या असमवायी कारण है, अतः संख्या गुण का सद्भाव सिद्ध होता है ?
समाधान-यह कथन असत् है, संख्या द्वयणुक आदि के परिमाण के प्रति असमवायी कारण है ऐसा सिद्ध करनेवाला कोई प्रमाण नहीं है।
वैशेषिकद्वयणुकादि परिमाण असमवायी कारणपूर्वक होते हैं क्योंकि ये सतरूप कार्य हैं, जैसे घटादि कार्य है इनका असमवायीकारण तो संख्या ही हो सकती है। इस परिशेष अनुमान प्रमाण से संख्या का असमवायी कारणपना सिद्ध होता है ।
जैन-यह प्रयुक्त है, कारण का परिमाण ही असमवायीकारण हुआ करता है अन्य नहीं जैसे कारण के रूपादिक कार्य के रूपादि के प्रति असमवायीकारणत्व है।
वैशेषिक-यदि द्वयणुक आदि के परिमाण का असमवायीकारणपना कारण का परिमाण ही है तो इसका अर्थ यह हुआ कि द्वयणुक का परिमाण परमाणु के परिमाण से उत्पन्न होता है. फिर द्वयणुक तो परमाणु जितना रह जायगा ।
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