________________
प्रमेयकमलमार्तण्डे
ननु चास्य सक्रियत्वे लोष्टादिवन्मूत्तिभिः सम्बन्धः स्यात् । तत्र केयं मूर्तिर्नाम-प्रसर्वगत द्रव्य परिमाणम्, रूपादिमत्त्वं वा स्यात् ? तत्राद्यपक्षो न दोषावहः; अभीष्टत्वात् । न हीष्टमेव दोषाय जायते । रूपादिमती मूत्तिः स्यादिति चेत् ; न ; व्याप्त्यभावात् । रूपादिमन्मूत्तिमानात्मा सक्रियत्वादबाणादिवत् ; इत्यप्यसुन्दरम् ; मनसाऽनैकान्तिकत्वात् । न चास्य पक्षीकरणम् ; 'रूपादिविशेषगुणानधिकरणं सन्मनोथं प्रकाशयति शरीरादत्तिरत्वे सति सर्वत्र ज्ञानकारणत्वादात्मवत्' इत्यनुमानविरोधानुषङ्गात् ।
जैन-तो क्या मन या शरीर अहं प्रत्यय द्वारा वेद्य होता है ? अर्थात् "अहं" ऐसा मैं पना का ज्ञान मनको या शरीर को होता है ऐसा माने तो चार्वाक मत में प्रवेश होवेगा।
वैशेषिक-प्रात्मा को क्रियावान मानेंगे तो लोष्ट-मिट्टी का ढेला आदि के समान मत्तिक पदार्थों के साथ इसका सम्बन्ध मानना होगा।
जैन-मत्ति किसे कहते हैं असर्वगत द्रव्य [शरीर] के परिमाण को या रूपादिमानपने को ? प्रथम बात कहो तो कोई दोष नहीं पाता, क्योंकि असर्वगत द्रव्य परिमाण को मूत्ति कहना हमें भी इष्ट है। जो इष्ट होता है वह दोष के लिये नहीं हुआ करता । रूपादिमानपने को मूत्ति कहते हैं तो ठीक नहीं, क्योंकि ऐसी व्याप्ति नहीं है कि जो जो सक्रिय हो वह वह रूपादियुक्त मूत्तिक ही हो ।
शंका- ऐसी व्याप्ति अनुमान द्वारा सिद्ध होती है, आत्मा रूपादियुक्त मूत्तिमान है, क्योंकि वह क्रियाशील है, जैसे बाणादिक क्रियाशील होने से मतिमान हैं ?
समाधान-यह अनुमान गलत है, इसमें "सक्रियत्वात्" हेतु मनके साथ अनेकान्तिक होता है अर्थात् मन सक्रिय तो है किन्तु रूपादियुक्त मूर्तिमान नहीं है । यदि कहा जाय कि मनको भी हम पक्ष में लेते हैं यानी मूत्तिमान मानते हैं तो यह बात भी ठीक नहीं, इसमें अनुमान प्रमाण से विरोध आता है-मन रूपादि विशेष गुणों का अनधिकरण होकर पदार्थ को प्रकाशित करता है [ साध्य ] क्योंकि यह शरीर से अर्थान्तर-भिन्न है एवं सर्वत्र ज्ञानका कारण है, जैसे प्रात्मा सर्वत्र ज्ञानका कारण है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org