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प्रात्मद्रव्यवादः
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तथाहि-प्रस्पर्शवद्रव्यत्वमाकाशादी व्यापित्वे सत्युपलब्धं मनसि चाऽव्यापित्वे, तदिदामीमात्मन्युपलभ्यमानं किं 'व्यापित्वं प्रसाधयत्वव्यापित्वं वा' इति सन्देहः । ननु मनोद्रव्यत्व (मनोऽन्यस्व) विशिष्टस्यास्पर्शवद्रव्यत्वस्य मनस्यनुपलम्भात्कथं सन्देहोऽत्रेतिचेत् ? अत एव । यदि हि तद्विशिष्टं तत्तत्रोपलभ्येत तदा निश्चितानकान्तिकत्वमेवास्य स्यान्न तु सन्दिग्धानकान्तिकत्वमिति । तनात्मनः कुतश्चित्प्रमाणात्सर्वगतत्वसिद्धिरित्यसर्वगत एवासी यथाप्रतीत्यभ्युपगन्तव्यः। ..
ननु चात्मनोऽसर्वगतत्वे दिग्देशान्तरवत्तिभिः परमाणुभियुगपत्संयोगाभावोऽतश्चाद्यकर्माभावः, तदभावादन्त्यसंयोगस्य तन्निमित्तशरीरस्य तेन तत्सम्बन्धस्य चाभावादनुपायसिद्धः सर्वदात्मनो मोक्षः
अनुमान का हेतु भी सदोष है, इसमें न स्पर्शवत् इति अस्पर्शवत् ऐसा नञ समास है, स्पर्शवान का अभाव अस्पर्शवान है इसमें प्रसज्य प्रतिषेधरूप अर्थ है कि पर्यु दास प्रतिषेध है इत्यादि पहले के प्रश्न होते हैं और वही पहले के दोष आते हैं। तथा यह हेतु संदिग्ध अनैकान्तिक दोष युक्त भी है आगे इसी को स्पष्ट करते हैं-आत्मा व्यापक है, क्योंकि मन से अन्य होकर अस्पर्शमान द्रव्य है, यह अनुमान है, इसमें अस्पर्शवान द्रव्यत्व हेतु है, अस्पर्शमान द्रव्यपना आकाश में रहता है वह तो व्यापक के साथ रहता है किंतु मन में अस्पर्शमान द्रव्यपना अव्यापक के साथ रहता है, अत: संदेह हो जाता है कि आत्मा में जो अस्पर्शवानपना है वह व्यापकत्व सिद्ध कर रहा है या अव्यापकत्व को सिद्ध कर रहा है।
वैशेषिक-हमने "अस्पर्शवत् द्रव्यत्व हेतु का विशेषण दिया है कि मन से अन्य होकर अस्पर्शवत् द्रव्य है, ऐसा विशिष्ट अस्पर्शवत् द्रव्यत्व मन में अनुपलब्ध है अतः हेतु का उसमें जाने का संदेह किसप्रकार होगा ?
जैन-मन में उस विशिष्ट अस्पर्शवत् द्रव्यकी अनुपलब्धि होने से ही संदेह हो रहा है, यदि वैसा विशिष्ट अस्पर्शवत् द्रव्यत्व मन में उपलब्ध होता तो यह हेत संदिग्ध अनैकान्तिक न होकर निश्चित अनेकान्तिक ही बन जाता। इसतरह आत्मा का सर्वगतपना किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं होता है अतः इसको असर्वगत मानना चाहिए, प्रतीति भी असर्वगतरूप आ रही है।
वैशेषिक-आत्माको असर्वगत मानते हैं तो दिशा तथा देश में रहने वाले परमाणुगों के साथ एक साथ संयोग नहीं बनेगा और उनके संयोग के अभाव में प्राद्य
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