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प्रमेयकमलमार्तण्डे प्राक् सतां विषयदर्शनादिसम्भवे तेषामेवाहर्जातवेलायां सत्त्वान्तराणामिव प्रवृत्तिः स्यात् । मध्यावस्थायां तु तत्साधने प्रत्यक्षविरोधः । अन्त्यावस्थायां चास्यात्यन्तविनाशे स्मरणाद्यभावात्स्तनादी प्रवृत्त्यभाव एव स्यात् । न चेयं विनाशोत्पादप्रक्रिया क्वचिद् दृश्यते । न खलु कटकस्य केयूरीभावे कुतश्चिद्भागेषु क्रिया विभाग: संयोगविनाशो द्रव्यविनाश: पुनस्तदवयवाः केवलास्तदनन्तरं तेषु कर्मसंयोग क्रमेण केयूरोभाव इति, केवलं सुवर्णकारका (कारकरा) दिव्यापारे कटकस्य केयूरीभावं पश्याम: । अन्यथा कल्पने च प्रत्यक्षविरोधः ।
यदि कहा जाय कि आत्मा के आरंभक अवयव पहले सत् स्वरूप थे उनके विषयदर्शन, अभिलाषा आदि संभव हो जायगी तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि ऐसा मानने से अन्य जीवों के समान वे प्रारंभक अवयव ही जन्म वेला में प्रवृत्ति कर सकेंगे ।
मध्य अवस्था में आत्मा सावयव बनता है ऐसा सिद्ध करना तो प्रत्यक्षविरुद्ध है अर्थात् जन्म के कुछ समय के अनंतर आत्मा के अवयव बनते हुए प्रतीत नहीं होते यदि ऐसा होता तो साक्षात् सावयव शरीर में उसकी प्रतीति कैसे होती। अंत्य अवस्था में प्रात्मा के अवयव बनते हैं ऐसा माने तो उसका अत्यन्त नाश भी मानना होगा और ऐसा मानने पर आगामीभव में स्मृति पाना स्तनपानादि में प्रवृत्ति होना आदि कुछ भी कार्य नहीं हो सकेंगे । हम जैन आत्माको सावयव मानते हैं किंतु पहले अवयवरहित पीछे सजातीय अवयवों से सावयवी ऐसा नहीं मानते अपितु अनादिकाल से सावयव बहुप्रदेशी मानते हैं । स्वभाव से ही उसमें अवयव [प्रदेश] हैं ऐसा हम स्याद्वादी मानते हैं ऐसा सावयवत्व मानने से उपर्युक्त दोष नहीं आते हैं ।
वैशेषिक की नाश और उत्पाद की प्रक्रिया भी विचित्र है। ऐसी प्रक्रिया कहीं पर भी दिखायी नहीं देती है। सुवर्णमय कटक [कड़ा] जब केयूररूप होता है अर्थात् जब सुनार कड़ानामा आभूषण को तोड़कर केयूर-बाजुबंद नामा आभूषण बनाता है तब किसी कारण द्वारा उक्त कड़े के भागों में क्रिया होना, पुनः विभाग होना, संयोगका नाश, द्रव्यका नाश, फिर उस द्रव्यके केवल अवयव रहना तदनन्तर उन अवयवों में क्रिया होना, क्रिया से संयोग, और संयोग से केयूर बनना ऐसी इतनी प्रक्रिया होती हुई दिखायी नहीं देती। केवल सुवर्ण जो कड़े के आकार में था वह सुनार के हाथ आदि के व्यापार से केयूर के प्राकार में परिवत्तित हो जाता है इस कार्य को अन्यथा कल्पित करना प्रत्यक्ष विरुद्ध है।
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