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प्रमेयकमल मार्तण्डे अचेतनं च तदनिष्टनरकादिपरिहारेणेष्टे स्वर्गादौ कथं प्रवर्ततस्वभावतः, ईश्वरात्, तदात्मनः, अदृष्टाद्वा ? प्रथमपक्षे दत्तः सर्वत्र ज्ञानाय जलांजलिः । अथेश्वरप्रेरणात् ; न; तनिषेधात् । को वायमीश्वरस्याग्रहो यतस्तत्प्रेरयति, न तदात्मानम् ? अस्य प्रेरणे चेदमनुगृहीतं भवति
"प्रज्ञो जन्तुरनीशोयमात्मन: सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ।।"
[ महाभा० वनपर्व० ३०।२८ ] इति ।
अभिन्न है, यदि क्रिया मनसे अभिन्न है तो जैसे क्रिया अनित्य है वैसे मन भी अनित्य होवेगा, फिर इस मनका कहीं पर क्षणमात्र का अवस्थान सिद्ध नहीं होगा। मनकी क्रिया मन से भिन्न है ऐसा माने तो उनका सम्बन्ध सिद्ध नहीं होगा । समवाय से संबंध होना भी अशक्य है, समवाय का निषेध कर आये हैं और आगे भी निषेध करने वाले हैं।
तथा मनके संसार होता है ऐसा माने तो वह अचेतन है, अचेतन मन अनिष्ट ऐसे नरक आदि का परिहार करके इष्टभूत स्वर्ग आदि में जाने के लिये किसप्रकार प्रवृत्ति करेगा ? स्वभाव से ही स्वर्ग आदि में जायेगा या ईश्वर के निमित्त से अथवा मन जिसमें सम्बद्ध है उस आत्मा के निमित्त से, अथवा अदृष्ट के निमित्त से ? स्वभाव से जाने की बात कहो तो ज्ञान के लिये जलांजलि देनी होगी, क्योंकि ज्ञान के बिना अचेतन मन ही इष्टानिष्ट की प्रवृत्ति निवृत्तिरूप कार्य करता है, तो ज्ञानको मानने की आवश्यकता ही नहीं रहती। ईश्वर की प्रेरणा से [ निमित्त से ] मन अनिष्ट का परिहार कर इष्ट स्वर्गादिमें गमन करता है ऐसा कहो तो भी ठोक नहीं हम जैन ने ईश्वर का निराकरण पहले ही कर दिया है, [ द्वितीय भाग में ] तथा ईश्वर का यह कौनसा आग्रह है कि वह मनको ही प्रेरित करता है उसके प्रात्माको नहीं ? यदि ईश्वर इस मनको प्रेरित करता है ऐसा माने तो आपके शास्त्र का कथन अनुगृहीत कैसे होगा, आपके यहां लिखा है कि-यह संसारी प्रात्मा अज्ञ है अपने सुख दुःख की प्राप्ति परिहार में असमर्थ है जब उस प्रात्मा को ईश्वर की प्रेरणा होती है तब स्वर्ग या नरक चला जाता है ।।१।। इस श्लोक में ईश्वर आत्मा को प्ररित करता है मनको नहीं, ऐसा सिद्ध होता है ।
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