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प्रमेयकमलमार्तण्डे
किञ्च, गृहीतं विशेषणं भवति, "नाऽगृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिः" [ ] इत्यभिधानात् । ग्रहणे चेतरेतराश्रयः । तथाहि-प्रात्मसम्बद्धनेन्द्रियेणासौ गृहीतः सिद्धः सन्नात्मनो विशेषणं सिध्यति, तत आत्मसम्बद्ध नेन्द्रियेण ग्रहणमिति । यदि चात्मा स्वयमसर्वगतद्रव्यपरिमाणसम्बन्धविकल: सिद्धस्तहि तावतव समीहितार्थसिद्ध: किमपरेण तदभावेनेति कथं विशेषणम् ? अथ विपरीतः; कथं तदभावो यतो विशेषणम् ?
किञ्च, प्रात्मतदभावाभ्यां सह विशेषरणीभावः सम्बद्धः, असम्बद्धो वा ? सम्बद्धश्चेत्, तर्हि यथात्मनि विशिष्टविज्ञानविधानादात्मनस्तदभावो विशेषणम्, तथा विशेषणीभावोपि 'प्रात्मा विशेष्य
असत रहते हैं फिर इनमें समवाय से सत्ता आती है इत्यादि वैशेषिक की मान्यता पहले यथा प्रसंग निराकृत हो चुकी है। ]
पदार्थ का विशेषण वही होता है जो ज्ञात-जाना हुआ हो "ना गृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिः" विशेषण को जाने बिना विशेष्य का ज्ञान नहीं होता, ऐसा नियम है । अब यह देखना कि आत्मारूप विशेष्य का अमूर्त्तत्वरूप विशेषण ग्रहण-ज्ञात होता है या नहीं, ग्रहण होना माने तो अन्योन्याश्रय होवेगा, कैसे सो बताते हैं- प्रात्मा से सम्बद्ध जो मनरूप इंद्रिय है उसके द्वारा मूर्त्तत्व का अभावरूप अमूर्तत्व गृहीत सिद्ध होगा तो वह आत्मा का विशेषण होना सिद्ध होगा, और जब यह विशेषण सिद्ध होगा तब उससे आत्मा में सम्बद्ध मन इन्द्रिय द्वारा मूर्त्तत्वाभावरूप अमूर्तत्व गृहीत होगा। उपर्युक्त दोषों से बचने के लिये पाप वैशेषिक आत्मा स्वयं ही असर्वगत द्रव्य परिमाण के संबंध से रहित है ऐसा मानते हैं तो उतने मात्र से ही इष्ट तत्व सिद्ध हो जायगा, फिर मतत्वाभाव नामा प्रभाव से क्या प्रयोजन रहता है ? अर्थात् कुछ भी नहीं, अत: वह प्रात्मा का विशेषण भी नहीं बनता है। अभिप्राय यह है कि जब प्रात्मा स्वयं ही असर्वगत द्रव्य के सम्बन्ध से रहित है तो उसको अमतत्व विशेषण देकर सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं रहती है। यदि आप प्रात्मा को स्वयं उस असर्वगत द्रव्य संबंध से रहित नहीं मानते हैं तो उस द्रव्य संबंध का प्रमाव कैसे कर सकते हैं जिससे कि असर्वगत द्रव्य परिमाणरूप मूर्त का अभाव जो अमूर्तत्व है वह आत्मा का विशेषण बन सके ।
प्रात्मा और मर्तत्वका अभाव [वैशेषिकके अभिप्राय के अनुसार असर्वगत द्रव्य परिमाण मतत्व है और उसका अभाव ही मूर्तत्व का अभाव है ] इन दोनों के साथ
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