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श्रात्मद्रव्यवाद:
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धर्माधर्मालिङ्गित तत्स्वरूपपरिहारेण तत्संयोगस्तत्स्वरूपान्तरे वर्त्तते; तर्हि घटादिवदात्मनः सावयवत्वं स्वारम्भकावयवारभ्यत्वमनित्यत्वं च स्यात् ।
एतेनैतन्निरस्तम्-‘देवदत्तं प्रत्युपसर्पन्तः पश्वादयो देवदत्तगुणाकृष्टास्तं प्रत्युपसर्पणवत्त्वाद्ग्रासादिवत्' इति । यथैव हि तद्विशेषगुणेन प्रयत्नाख्येन समाकृष्टास्तं प्रत्युपसर्पन्तः समुपलभ्यन्ते ग्रासादयः, तथा नयनाञ्जनादिना द्रव्यविशेषेणाप्याकृष्टाः स्त्र्यादयस्तं प्रत्युपसर्पन्तः समुपलभ्यन्ते एव प्रत: किं
संयोग द्वारा आत्मा व्याप्त होगा तो धर्म अधर्म का अवकाश नहीं होगा । [ क्योंकि आत्मा में अंश नहीं है ]
वैशेषिक - धर्म ग्रधर्म से व्याप्त जो ग्रात्मा का स्वरूप है उसका परिहार करके द्रव्य संयोग उस आत्मा के स्वरूपांतर में रहता है ग्रतः कोई दोष नहीं आता ?
जैन - तो फिर घट पट आदि के समान आत्मा भी अंश वाला - अवयव वाला सिद्ध होगा और यदि अवयव युक्त है तो अपने अवयवों के आरंभक परमाणुत्रों से रचा होने से प्रनित्य भी सिद्ध होगा । अर्थात् आत्मा को सावयव एवं अनित्य मानना होगा जो कि वैशेषिक को अनिष्ट है ।
जिसतरह देवदत्त के प्रति द्वीपांतरवर्ती पदार्थों को आकर्षित करने का अनुमान खंडित होता है उसी तरह पशु आदि को देवदत्त के प्रति आकर्षित करने का अनुमान प्रमाण खंडित होता है, अब उसी अनुमान के विषय में विचार करते हैंदेवदत्त के पास आते हुए पशु आदि देवदत्त के गुणों से आकृष्ट हैं क्योंकि वे उसके प्रति उत्सर्पणशील हैं, जैसे ग्रास आदिक आते हैं। इस अनुमान में यह सिद्ध करना है कि देवदत्त के पास गाय भैंसादि पशु आते हैं वे देवदत्त के ग्रहष्ट नामा गुरण के कारण ते हैं, किंतु यह सिद्ध नहीं होता । क्योंकि जिसप्रकार देवदत्त के प्रयत्न नामा विशेष गुण से आकृष्ट होकर ग्रासादिक देवदत्त के निकट प्राते हुए देखे जाते हैं उसी प्रकार नेत्र के अंजन प्रादि द्रव्य द्वारा भी स्त्री श्रादि प्राकृष्ट होकर देवदत्त के पास आते हुए देखे जाते हैं, अर्थात् गुण द्वारा देवदत्त के पास पदार्थ आते हैं और द्रव्य जो अंजनादिक है उसके द्वारा भी पदार्थ का देवदत्त के प्रति आकृष्ट होना सिद्ध होता है, अतः संदेह हो जाता है कि प्रयत्न के समान किसी गुण द्वारा आकृष्ट होकर ये पशु प्रादिक देवदत्त
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