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प्रात्मद्रव्यवादः
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प्रथ द्वीपान्तर वत्तिद्रव्यसंयुक्तात्मप्रदेशस्थमेव तत्तेषां तं प्रत्युपसर्पणहेतुः; न; मन्यत्र प्रयत्नादावात्मगुणे तथानभ्युपगमात् । न खलु प्रयत्नो प्रासादिसंयुक्तात्मप्रदेशस्थ एव हस्तादिसञ्चलनहेतुसिादिकं देवदत्तमुखं प्रापयति, अन्तरालप्रयत्नवैफल्य प्रसंगात् ।
ननु प्रयत्नस्य विचित्रतोपलभ्यते, कश्चिद्धि प्रयत्नः स्वयमपरापरदेशवानन्यत्र क्रियाहेतुर्यथानन्तरोदितः। अन्यश्चान्यथा यथा शरासनाध्यासपदसंयुक्तात्मप्रदेशस्थ एव शरीरा (शरा) दीनां लक्ष्यप्रदेशप्राप्तिक्रियाहेतुरिति । सेयं चित्रता एकद्रव्याणां क्रियाहेतुगुणानां स्वाश्रयसंयुक्तासंयुक्तद्रव्यक्रियाहेतुत्वेन किन्नेष्यते विचित्रशक्तित्वाद्भावानाम् ? दृश्यते हि भ्रामकाख्यस्यायस्कान्तस्य स्पर्शो गुण
द्वीपांतर में होने वाले मणि आदि पदार्थों से संयुक्त आत्मप्रदेशस्थ अदृष्ट देवदत्त के पास उन मणि रत्नादिको भेजने में निमित्त होता है ऐसा पक्ष भी ठीक नहीं क्योंकि अापने प्रयत्न आदि गुणों को छोड़कर अन्य किसी प्रात्मा के गुणों में इस तरह की क्रिया करने में निमित्त होना माना नहीं है । तथा प्रयत्न नामका गुण ग्रासादि से संयुक्त आत्मप्रदेश में स्थित हुअा ही हस्तादि के संचलन का हेतु है और वही देवदत्त के मुख में ग्रासादि को प्राप्त कराता है ऐसा नहीं कह सकते अन्यथा अंतरालवर्ती प्रयत्न व्यर्थ होने का प्रसंग प्राता है ।
वंशेषिक-प्रयत्न विचित्र प्रकार के हुआ करते हैं, कोई प्रयत्न तो स्वयं अन्य अन्य प्रदेशवान होकर अन्यत्र क्रिया का निमित्त पड़ता है जैसे कि अभी ग्रासादिमें प्रयत्न होना बतलाया है, तथा कोई प्रयत्न अन्य प्रकार का होता है, जैसे धनुष पर स्थित जो हाथ है उसमें जो आत्मप्रदेश हैं उनमें होनेवाला जो प्रयत्न है वह वहीं रहकर बाणादि को लक्ष्य प्रदेश तक प्राप्त कराने में निमित्त पड़ता है ।
जैन-ठीक है ऐसी ही विचित्रता एक द्रव्यभूत क्रिया के हेतुरूप गुण जो अदृष्ट हैं उनमें क्यों न मानी जाती । अर्थात् उक्त अदृष्ट स्वाश्रय में संयुक्त द्रव्य के और असंयुक्त द्रव्य के दोनों के क्रिया का हेतु क्यों नहीं माने, पदार्थों के शक्तियों के वैचित्र्य देखा ही जाता है। क्योंकि देखा जाता है कि भ्रामक नामके चुबक पाषाण का स्पर्श गुण एक द्रव्य रूप होकर अपने प्राश्रय में संयुक्त लोह द्रव्य के क्रिया का हेतु होता है [लोह को पकड़ता है] और एक आकर्षक नामका चुम्बक पाषाण होता है वह अपने आश्रय में संयुक्त नहीं हुए लोह द्रव्य के क्रिया का हेतु होता है । भावार्थ यह
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