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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
विधुरत्वात्पटादिवत् । न च बुद्ध्यास्य व्यभिचारः; श्रस्याः स्वग्रहणात्मकत्वप्रसाधनात् । प्रसाधितं च पौद्गलिकत्वं कर्मणां सर्वज्ञसिद्धिप्रस्तावे तदल मतिप्रसंगेन । तदेवं धर्माधर्म योस्तदात्मगुणत्व निषेधात् तन्निषेधानुमानबाधितमेतत् - 'देवदत्तांगनाद्यंगं देवदत्तगुणपूर्वकम्' इति ।
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अस्तु वा तयोर्गुणत्वम् ; तथापि न तदङ्गनाङ्गादिप्रादुर्भावदेशे तत्सद्भावसिद्धिः । न खलु सर्वं कारणं कार्यदेशे सदेव तज्जन्मनि व्याप्रियते, अञ्जन तिलकमन्त्राऽयस्कान्तादेरा कृष्यमाणाङ्गनादि
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व्यभिचरित भी नहीं होता क्योंकि बुद्धि भी स्व की ग्राहक होती है ऐसा हम सिद्ध कर चुके हैं । धर्म-अधर्म जिसे पुण्य पाप भी कहते हैं ये कर्म रूप हैं और कर्म पौद्गलिकअचेतन हुआ करता है इस बात को सर्वज्ञ सिद्धि प्रकरण में [ दूसरे भाग में ] कह श्राये हैं, अब यहां पर अधिक नहीं कहते हैं । इसप्रकार धर्म-अधर्म को आत्मा का गुण मानना प्रसिद्ध होता है, जब धर्मादि में आत्म गुणत्व का निषेध हुआ तो वह पूर्वोक्त कथन अनुमान बाधित होता है कि - देवदत्त के स्त्री आदि का शरीर देवदत्त के गुणपूर्वक होता है इत्यादि ।
वैशेषिक के आग्रह से मान लेवें कि धर्म-अधर्म गुण है किन्तु गुण होने मात्र से उनका उस देवदत्तादि के स्त्री के शरीरोत्पत्ति स्थान पर सद्भाव सिद्ध नहीं होता है, यह नियम नहीं है कि सभी कारण कार्य के स्थान पर रहकर ही उसके उत्पत्ति में प्रवृत्त होते हैं । देखा जाता है कि-अंजन, तिलक, मन्त्र अयस्कान्त [ चुम्बक ] आदि पदार्थ स्त्री लोहा प्रादि के स्थान पर मौजूद नहीं रहते फिर भी उन स्त्री लोहा आदि को आकर्षित करना इत्यादि कार्यों को करते हैं ।
भावार्थ -- वैशेषिक आत्मा को सर्वगत मानते हैं, उनका कहना है कि देवदत्त आदि मनुष्यों के भोग्य सामग्री आदि का जो भी देवदत्त को लाभ हुआ है वह स्त्री, मुक्ता आदि सामग्री देवदत्त के ग्रात्मा के अदृष्ट-धर्मादि द्वारा मिली है, वे धर्मादिक स्त्री आदि के उत्पत्ति स्थान रहकर देवदत्तादि के भोग्य सामग्री को बनाया करते हैं, इस पर आचार्य समझा रहे हैं कि धर्म-अधर्म नामा गुण आत्मा के नहीं हैं वे तो पौद्गलिक जड़ हैं तथा यह नियमित नहीं है कि जहां कार्य होना है वहीं कारण मौजूद रहे, कारण अन्यत्र हो और कार्य अन्यत्र बन जाय ऐसा भी होता है । एक विशेष अंजन होता है उसको कोई पुरुष प्रांखों में डालता है तो स्त्री उसके तरफ आकर्षित हो जाती
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