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प्रात्मद्रव्यवादः
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नाप्यात्मद्रव्यम् । तद्धि सर्वगतत्वादिधर्मोपेतं परैरभ्युपेयते । न चास्य तदुपेतत्वमपपद्यते; प्रत्यक्षविरोधात् । प्रत्यक्षेण ह्यात्मा 'सुख्यहं दुःख्यहं घटादिकमहं वेद्मि' इत्यहमहमिकया स्वदेह एव सुखादिस्वभावतया प्रतीयते, न देहान्तरे परसम्बन्धिनि, नाप्यन्तराले। इतरथा सर्वस्य सर्वत्र तथा प्रतीतिरिति सर्वदर्शित्वं भोजनादिव्यवहारसङ्करश्च स्यात् ।
दिशाद्रव्य तथा आकाशादि द्रव्य जैसे विपरीत मान्यता के कारण सिद्ध नहीं होते वैसे प्रात्मा द्रव्य भी विपरीतता के कारण सिद्ध नहीं होता है आगे इसी विषय में कथन प्रारम्भ होता है। वैशेषिक आत्मा को सर्वव्यापी, नित्य इत्यादि स्वरूप मानते हैं किन्तु यह मान्यता प्रत्यक्ष से विरुद्ध है प्रत्यक्ष से प्रात्मा मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूं, मैं घटादि पदार्थ को जानता हूँ, इत्यादि प्रत्ययों द्वारा अहं अहं रूप से अपने शरीर मात्र में प्रतीति में आता है, दूसरे के शरीर में या कहीं अंतराल में प्रात्मा प्रतीति में नहीं आता है यदि अन्य के शरीर में अंतराल में आत्मा होता तो सभी को सब जगह सुख दुःखादि की प्रतीति होती, सभी प्रात्मानों का सर्वदर्शित्व प्रसंग भी आता है क्योंकि आत्मा सर्वव्यापक होने से जगत के यावन्मात्र पदार्थ उसके विषय होते । भोजनादि व्यवहार का संकट भो होता, इसतरह आत्मा को सर्वव्यापक मानने में दोष आते हैं।
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