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प्रात्मद्रव्यवादः
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'द्रव्यान्तरासाधारणसामान्यवत्त्वे सति' इत्युच्यते । एकस्माद्धि द्रव्यादन्यद्रव्यं द्रव्यान्तरम्, तदसाधारणसामान्यवत्त्वे सत्यनेकत्वमाकाशादौ नास्तीति । अत एव परममहापरिमाणलक्षणगुणेनापि नानेकांतः ।
तथा, नात्मा तत्परिमाणाधिकरणो दिक्कालाकाशान्यत्वे सति द्रव्यत्वादघटादिवत् । न सामान्येन परममहापरिमाणेन वानेकान्तः, तयोरद्रव्यत्वात् । नापि दिगादिना, तदन्यत्वे सति' इति विशेषणात् ।
तथा, नात्मा तत्परिमाणाधिकरण : क्रियावत्त्वाबाणादिवत् । न चेदमसिद्धम् ; 'योजनमहमागतः कोशं वा' इत्यादिप्रतीतितस्तत्सिद्ध:। न च मनः शरीरं वागतमित्यभिधातव्यम्; तस्याहं
"द्रव्यांतरासाधारण सामान्यवत्वे सति" ऐसा कहा है। एक द्रव्य से जो अन्य द्रव्य हो उसे द्रव्यांतर कहते हैं, ऐसा आकाशादि द्रव्यों में नहीं पाया जाने वाला असाधारण [विशिष्ट] सामान्यवानपना है एवं अनेकत्व है वह आकाशादि में नहीं है, इसलिये हम जैन के हेतु में अनैकान्तिकता नहीं पाती है। जिस तरह यह हेतु आकाशादि से व्यभिचरित नहीं होता उसी तरह परम महापरिमाण लक्षण वाले गुण के साथ भी व्यभिचरित नहीं होता है, क्योंकि उक्त गुण में अनेकपना नहीं है।
आत्मा के व्यापकत्व का खण्डन करनेवाला दूसरा अनुमान इसप्रकार हैआत्मा महापरिमाण का अधिकरण नहीं है [पक्ष] क्योंकि वह दिशाकाल और आकाश से अन्य होकर द्रव्य कहलाता है [हेतु] जैसे घट पट आदि महापरिमाण के अधिकरण नहीं हैं एवं दिशा आकाशादि से भिन्न होकर द्रव्य हैं। [दृष्टांत] इस अनुमान के हेतु का सामान्य के साथ तथा परम महापरिमाण के साथ व्यभिचार भी नहीं होता, क्योंकि सामान्यादिक द्रव्य नहीं हैं। तथा दिशा प्रादि के साथ भी व्यभिचार नहीं होगा, इस व्यभिचार को दूर करने के लिये हेतु में तदन्यत्वे सति दिशा आकाशादि से अन्य द्रव्य होकर ऐसा विशेषण प्रयुक्त हुअा है। प्रात्मा को अव्यापक बतलाने वाला तीसरा अनुमान-आत्मा परम महापरिमारण वाला नहीं है, क्योंकि यह क्रियाशील द्रव्य है, जैसे बाणादि पदार्थ क्रियाशील होने से महापरिमाण के अधिकरण नहीं हुआ करते हैं। यह क्रियावत्व हेतु भी असिद्ध नहीं है, प्रात्मा में क्रियापना देखा ही जाता है "मैं एक योजन चलकर पाया हूं, मैं एक कोस चलकर गया" इत्यादि प्रतीति से प्रात्मा के सक्रियत्व की सिद्धि होती है। यह जो एक योजन आदि गमन है वह मन: या शरीर
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