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प्रमेयकमलमार्तण्डे
प्रत्ययाऽवेद्यत्वात्, अन्यथा चार्वाक मतप्रसङ्गः स्यात् । प्रसाधयिष्यते चाग्रे विस्तरतोस्य क्रियावत्त्वमित्यलमतिप्रसंगेन ।
तथा, प्रात्माऽणुपरममहत्त्वपरिमाणानधिकरणः, चेतनत्वात्, ये तु तत्परिमाणाधिकरणा न ते चेतनाः यथाकाशपरमाण्वादयः, चेतनश्चात्मा, तस्मान्न तत्परिमाणाधिकरण इति ।
ननु चात्मा परममहापरिमाणाधिकरणो न भवतीति प्रतिज्ञाऽनुमानबाधिता। तच्चानुमानम्प्रात्मा व्यापकोऽणुपरिमाणानाधिकरणत्वे सति नित्यद्रव्यत्वादाकाशवत् । अणुपरिमाणानधिकरणोसौ अस्मदादिप्रत्यक्षविशेषगुणाधिकरणत्वाद्घटादिवत् । तथा नित्यद्रव्यमात्माऽस्पर्शवद्रव्यत्वादाफाशवदेवेति ।
का है ऐसा भी नहीं कहना, क्योंकि मन या शरीर अहं (मैं) प्रत्यय से अनुभव में नहीं प्राता, अन्यथा चार्वाक मतका प्रसंग आयेगा ! अर्थात् मन या शरीर को अहं ऐसा कहते हैं तो प्रात्म द्रव्य को पृथक् मानने की आवश्यकता नहीं रहती और प्रात्मद्रव्य नहीं मानने पर चार्वाक मत पाता है अतः एक कोस चलकर आया हूं इत्यादि प्रतीति द्वारा प्रात्मा ही सिद्ध होता है । इसी आत्मद्रव्यवाद प्रकरण में आत्मा के क्रियावानपने की विस्तारपूर्वक सिद्धि करने वाले हैं, अतः यहां अधिक नहीं कहते हैं।
आत्मा के सर्वगतत्वका प्रतिषेधक चौथा अनुमान आत्मा अणु और परम महापरिमाण का अधिकरण नहीं है, क्योंकि वह चेतन है, जो अणु या महान परिमाण के अधिकरण हुआ करते हैं वे चेतन नहीं होते हैं, जैसे परमाणु अणु परिमाण का अधिकरण है और आकाश महान परिमाण का अधिकरण होने से चेतन नहीं है, अात्मा चैतन्य है अतः वह अणु या महान परिमाण वाला नहीं हो सकता है।
वैशेषिक-आप जैन ने इस अनुमान में जो प्रतिज्ञा वाक्य कहा कि आत्मा परम महापरिमाण का अधिकरण नहीं होता है, सो यह प्रतिज्ञा या पक्ष अनुमान बाधित है, उसी बाधक अनुमान को दिखलाते हैं-आत्मा व्यापक है, क्योंकि अणुपरिमाण का अनधिकरण [अाधार नहीं होकर] एवं नित्य द्रव्यस्वरूप है, जैसे आकाश व्यापक है । अात्मा अण परिमाण अनधिकरण इसलिये है कि वह हम जैसे पुरुषों द्वारा प्रत्यक्ष होने योग्य गुणों का आधार है, जैसे घटादिक है। तथा आत्मा नित्य द्रव्यरूप है, क्योंकि वह अस्पर्शवान द्रव्य है, जैसे आकाश है, इन सब अनुमानों से प्रात्मा की व्यापकता एवं नित्यता सिद्ध होगी ?
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