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कालद्रव्यवाद:
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चिरक्षिप्रव्यवहाराभावश्चैवंवादिनः । यत्खलु बहुना कालेन कृतं तच्चिरेण कृतम् । यच्च स्वल्पेन कृतं तत्क्षिप्रं कृतमित्युच्यते । तच्चैतदुभयं कालकत्वे दुर्घटम् ।
ननु चैकत्वेपि कालस्योपाधिभेदाभेदोपपत्तेर्न योगपद्यादिप्रत्ययाभावः । तदुक्तम् - "मणिवत्याचकवद्वोपाधिभेदात्कालभेद:" [ ] इति; तदप्ययुक्तम्; यतोऽत्रोपाधिभेद: कार्यभेद एव । स च 'युगपत्कृतम्' इत्यत्राप्यस्त्येवेति किमित्ययुगपत्प्रत्ययो न स्यात् ? अथ क्रमभावी कार्यभेदः
में किया ऐसा कहते हैं । जब काल सर्वथा एक रूप है तब निखिलकार्य एक समय में उत्पन्न करने योग्य हो जाने से एक काल में ही उत्पन्न हो जायेंगे अतः कोई भी कार्य क्रम से करने योग्य नहीं रहेगा । जो कालद्रव्य को निरंश नित्य मानते हैं उन वैशेषिक के यहां चिरक्षिप्र काल का व्यवहार भी सिद्ध नहीं हो पाता है, क्योंकि जो बहुत समय द्वारा कार्य होता है उसको चिर काल में हुआ ऐसा कहते हैं, और जो अल्प समय द्वारा किया जाता है उस कार्य को क्षिप्र किया ऐसा कहते हैं । ये दोनों तरह के कार्य काल को एक रूप मानने पर सिद्ध नहीं हो सकते हैं ।
वैशेषिक — कालद्रव्य यद्यपि सर्वथा एक रूप है तो भी उपाधियों में भेद होने के कारण उसमें भेद हो जाता है, अतः यौगपद्यादि प्रत्ययों का प्रभाव नहीं होगा । कहा भी है- " मणिवत् पावकवत् वा उपाधिभेदात् काल भेदः " जिसप्रकार स्फटिकमणि एक रहता है किन्तु जपाकुसुम की उपाधि से लाल, तमाल पुष्प को उपाधि से कृष्ण इत्यादि अनेक रूप बन जाता है । अथवा अग्नि एक है किन्तु नाना प्रकार के काष्ठ के संयोग से अनेकरूप कहलाने लगती है कि यह खदिरकी अग्नि है, यह तृण की अग्नि है इत्यादि, इसीप्रकार कालद्रव्य एक है किन्तु पदार्थ के उपाधि से उसमें भेद हो जाता है ? जैन - यह कथन भी प्रयुक्त है, स्फटिक मणि आदि का उदाहरण दिया है उसमें जो उपाधिभेद कहा वह कार्य का भेद कहलाता है, ऐसा कार्य भेद तो " युगपत् कृतं " एक साथ किया ऐसे कथन में भी होता है, फिर अयुगपत् प्रत्यय क्यों नहीं होता है ?
वैशेषिक – कार्यों का जो भेद होता है वह क्रमभावी होता है अतः उससे प्रतीतकाल इत्यादि काल भेद का व्यवहार बन जाता है ?
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