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कालद्रव्यवादः
कार्य तत्रापि कर्तृकर्मणोः सद्भावात्स्यादेतद्विज्ञानम्, न चैवम् । यथाऽ(तथाs)योगपद्यप्रत्ययोप्ययुगपदेते कुर्वन्तीति, अयुगपदेतत्कृतमिति नाविशिष्टं कर्तृकर्म मात्रमालम्बतेऽतिप्रसङ्गादेव । अतस्तद्विशेषणं कालोऽभ्युपगन्तव्यः । कथमन्यथा चिरक्षिप्रव्यवहारोपि स्यात् ? एक एव हि कर्ता किञ्चित्कार्य चिरेण करोति व्यासङ्गादनथित्वाद्वा, किञ्चित्तु क्षिप्रमथितया। तत्र 'चिरेण कृतं क्षिप्रं कृतम्' इति प्रत्ययौ विशिष्टत्वाद्विशिष्टं निमित्तमाक्षिपत इति काल सिद्धिः ।
लोकव्यवहाराच्च ; प्रतीयन्ते हि प्रतिनियत एव काले प्रतिनियता वनस्पतयः पुष्यन्तीत्यादि
आता है । अतः युगपत् करते हैं, युगपत् किया इत्यादि प्रतिभासों का विषय काल है ऐसा स्वीकार करना चाहिए। दूसरी बात यह है कि केवल कर्ता और कर्म के निमित्त से योगपद्य का प्रतिभास होता है तो चिर तथा क्षिप्र का व्यवहार किस प्रकार संभव होगा ? क्योंकि व्यासंगवश या अनिच्छा के कारण एक ही कर्त्तापुरुष किसी कार्य को चिरकाल से [ अधिक समय लगाकर ] करता है और इच्छा होने से किसी कार्य को शीघ्र करता है। उक्त कार्यों में, अधिक समय में किया एवं शीघ्र किया ऐसे दो विशिष्ट प्रतिभास होते हैं अतः ये प्रतिभास विशिष्ट निमित्त को ही सिद्ध कर रहे हैं वह विशिष्ट काल ही है इस प्रकार काल द्रव्य की निर्वाध सिद्धि होती है।
भावार्थ-कोई परवादी यौगपद्य प्रादि प्रतिभास कालद्रव्य द्वारा न मानकर कर्ता कर्म द्वारा मानते हैं । यह मान्यता सर्वथा प्रसिद्ध है यदि कर्ता और कर्म निमित्तक यौगपद्य प्रतिभास होता तो जहां पर कम से कार्य हो रहा है वहां पर योगपद्य प्रतिभास होना चाहिए, क्योंकि उसका निमित्त कर्ता कर्म वहां पर है । तथा जहां पर अयोगपद्य प्रतिभास होता है वहां पर भी कर्ता एवं कर्म अवस्थित हैं जो जब उभयत्र समान रूप से कर्ता कर्म मौजूद है तो किस कारण से कहीं योगपद्य प्रतिभास और कहीं अयोगपद्य प्रतिभास होता है ? अतः ज्ञात होता है कि योगपद्य आदि प्रतिभास केवल कर्ता कर्म के निमित्त से नहीं होते, इन प्रतिभासों का कोई विशिष्ट कारण अवश्य है, जो विशिष्ट कारण है वही काल द्रव्य है ।
___ काल द्रव्य की सिद्धि लोक व्यवहार से भी भली प्रकार से हो जाती है, अब इसीको कहते हैं-प्रतिनियत समय में प्रतिनियत वनस्पतियां फल शाली हो जाया करती हैं, वसंत ऋतु में अाम्र पर बौर आता है, इत्यादि व्यबहार को व्यवहारी जन
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