Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्राकाशद्रव्यविचारः
२६६ तथाहि-पौद्गलिका शब्दोऽस्मदादिप्रत्यक्षत्वेऽचेतनत्वे च सति क्रियावत्त्वाबाणादिवत् । न च मनसा व्यभिचारः; 'अस्मदादिप्रत्यक्षत्वे सति' इति विशेषणत्वात् । नाप्यात्मना; 'अचेतनत्वे सति' इति विशेषणात् । नापि सामान्येन; अस्य क्रियावत्त्वाभावात् । ये च 'अस्मदादिप्रत्यक्षत्वे सति स्पर्शवत्त्वात्' इत्यादयो हेतव : प्रागुपन्यस्तास्ते सर्वे पौद्गलकत्व प्रसाधका द्रष्टव्याः । तत: शब्दस्याकाशगुणत्वासिद्धनासौ तल्लिङ्गम् ।
हैं । तात्पर्य यह है कि शब्द पुद्गल द्रव्य की पर्याय है उसमें रूपादिगुण रहते हैं किन्तु वे हम जैसे व्यक्ति द्वारा उपलब्ध नहीं होते । शब्द में रूपादिक किस प्रकार अप्रगट रहते हैं इस बात को स्पष्ट करने के लिये और भी उदाहरण हैं, जैसे कि आपके यहां घ्राणेन्द्रिय द्वारा ग्रहण किये जाने वाले गन्ध द्रव्य में रूप रसादि को अनुभूत-अप्रगट रूप माना गया है। तथा जैसे नयन रश्मि में एवं जल संयुक्त अग्नि में तैजसपना होने से रूपादिका अस्तित्व अनुपलब्ध होने पर भी मानते हैं, गन्ध द्रव्य में पार्थिवपना होने से रूपादि का अस्तित्व मानते हैं, उनमें अनुद्भूत स्वभाव वाले रूपादिक संभावित करते हैं, उसी प्रकार शब्द में पौद्गलिकपना होने से रूपादिका अस्तित्व संभावित किया जाता है।
शब्द का पूदगलपना प्रसिद्ध भी नहीं है, अनुमान द्वारा सिद्ध करके बतलाते हैं-पौद्गलिकः शब्दः, अस्मदादि प्रत्यक्षत्वे अचेतनत्वे च सति क्रियावत्वात, बाणादिवत् ? शब्द पौद्गलिक है- पुद्गल नामा मूत्तिक द्रव्य से बना हुआ है, [ साध्य ] क्योंकि हमारे प्रत्यक्ष एवं अचेतन होकर क्रियाशील है [हेतु] जैसे बाण आदि पदार्थ अचेतन क्रियावान् होने से पौद्गलिक है । इस हमारे हेतु का मनके साथ व्यभिचार भी नहीं आता है, क्योंकि हेतु में जो "अस्मदादिप्रत्यक्षत्वे सति" यह विशेषण दिया है वह इस व्यभिचार दोष को हटाता है। अर्थात् जो क्रियावान है वह पौद्गलिक है ऐसा कहने से मन के साथ अनैकान्तिकपना आता है भाव मन क्रियावान तो है किन्तु वह पौद्गलिक नहीं है इस तरह कोई व्यभिचार दोष देवे तो वह ठीक नहीं, इस दोष को हटाने वाला "अस्मदादि प्रत्यक्षत्वे सति" यह विशेषण प्रयुक्त हुआ है । मन क्रियावान तो है किन्तु अस्मदादि प्रत्यक्ष नहीं है। प्रात्मा के साथ भी उपर्युक्त हेतु व्यभिचरित नहीं होगा, क्योंकि हेतु में "अचेतनत्वे सति' विशेषण जोड़ा है, आत्मा क्रियावान है किन्तु अचेतन नहीं है, अतः जो अचेतन होकर क्रियावान है वह पौद्गलिक ही है, ऐसा कहना सिद्ध होता है। सामान्य के साथ हेतु को व्यभिचरित करना भी अशक्य है
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