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आकाशद्रव्यविचार का सारांश वैशेषिक--शब्द के द्वारा प्राकाश द्रव्य जाना जाता है, शब्द गुणरूप पदार्थ है, और गुण कहीं आश्रित रहता है, शब्द रूप गुण का आश्रय आकाश द्रव्य है । शब्द में कर्मपना एवं द्रव्यपना न होकर भी सत्ता का सम्बन्ध है अतः वह गुण है। शब्द सामान्य पदार्थ रूप भी नहीं है, क्योंकि सामान्य में सत्ता का समवाय नहीं होता । संयोग और विभाव का कारण नहीं होने से शब्द को कर्मपदार्थ रूप भी नहीं कह सकते । इस तरह शब्द द्रव्यादि स्वरूप सिद्ध नहीं होता अतः अंततोगत्वा वह आकाश का गुण है ऐसा निर्णय हो जाता है । आकाश सर्वगत होने से उसके गुणस्वरूप शब्द भी यत्र तत्र उपलब्ध होते हैं । इस शब्दलिंग द्वारा ही आकाश द्रव्य की सिद्धि होती है।
जैन-यह कथन गलत है, शब्द द्वारा आकाश की सिद्धि होना सर्वथा अशक्य है । आगे इसी को बताते हैं- शब्द का प्राश्रय सामान्य से कोई एक पदार्थ है ऐसा मानना इष्ट है अथवा नित्य सर्वगतरूप ही पाश्रय मानना इष्ट है ? प्रथम पक्ष में सिद्ध साध्यता है, क्योंकि सामान्य से कोई एक पदार्थ को शब्द का प्राश्रय हमने भी माना है अर्थात् पुद्गल द्रव्य शब्द का आश्रय है ऐसा हम मानते हैं। दूसरे पक्ष में रूपादि के साथ अनैकान्ति कता होगी, क्योंकि जो पाश्रयभूत हो वह नित्य सर्वगत ही हो ऐसा नियम असम्भव है रूपादिगुण आश्रित तो है किन्तु नित्य सर्वगत के आश्रित नहीं है।
आप शब्द को गुण रूप सिद्ध करना चाहते हैं किन्तु उसमें अल्पत्व महत्व, संयोग, संख्या प्रादि गुण पाये जाते हैं अतः वह द्रव्य रूप ही सिद्ध होता है, यदि गुण रूप होता तो उसमें उक्त गुण नहीं होते क्योंकि गुण स्वयं निर्गुण हुअा करते है । तीव्र
और मंद रूप सुनाई देने से शब्द में महत्व और अल्पत्व सिद्ध होता है । एक शब्द है, अनेक शब्द हैं इत्यादि रूप से शब्द में संख्या की प्रतीति भी होती है।
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