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प्राकाशद्रव्यविचारः
परेणाप्यत्र पौर्वापरीभावोऽभीष्टो नित्यत्वविरोधानुषङ्गात् । क्षणविशरारुतया निखिलार्थानां नाधाराधेयभावः; इत्यपि मनोरथमात्रम् ; क्षणविशरारुत्वस्यार्थानां प्रागेव प्रतिषेधात् । 'खे पतत्री' इत्याद्यऽबाधितप्रत्ययाच्च तद्भावप्रसिद्ध: । तत: परेषां निरवद्यलिङ्गाऽभावान्नाकाश द्रव्यस्य प्रसिद्धिः ।
। प्राकाशद्रव्यविचारः समाप्तः ।।
आकाशादि में पूर्व उत्तरपना नहीं माना । यदि इनमें पूर्वापरी भाव मानेंगे तो वे नित्य नहीं रहेंगे।
बौद्ध–सम्पूर्ण पदार्थ क्षणभंगुर हैं, क्षण क्षण में नष्ट होने वाले हैं, अतः उनमें आधार प्राधेयभाव नहीं हो सकता।
जैन-यह कथन मनोरथ मात्र है, आपके क्षणभंग वाद का पहले भली प्रकार से खण्डन कर आये हैं, पदार्थों का क्षणिकपना किसी प्रकार भो सिद्ध नहीं होता है। "आकाश में पक्षी है" इत्यादि निर्बाध ज्ञान के द्वारा भी आकाश आदि द्रव्य के आधारआधेयभाव की सिद्धि होती है। तथा कुण्ड में बेर है, तिलों में तैल है, हाथ में कंकण है इत्यादि अनगिनती आधार-आधेयपना दिखायी दे रहा है, अतः बौद्ध इस अखंड आधार-प्राधेयभाव का खंडन नहीं कर सकते । वैशेषिक को अंत में यही कहना है कि आपके यहां पर आकाश द्रव्य की सिद्धि नहीं हो पाती है, क्योंकि आप शब्द रूप हेतु द्वारा आकाश को सिद्ध करना चाहते हैं, किन्तु शब्द अाकाश का गुण नहीं है वह स्पर्श
आदि गुण वाला मूत्तिक पदार्थ सिद्ध होता है । जब शब्द गुण रूप नहीं है तो उसके द्वारा आकाश की सिद्धि करना नितरां असम्भव है, यह निश्चित हुप्रा । अब हम इस प्रकरण को संकोचते हैं ।
।। आकाशद्रव्य विचार समाप्त ।।
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