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प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रापकादृष्टाभावात्तदभावः; तुच्छाभावस्यासामर्थ्यतो विनाशाहेतुत्वात् खरविषाणवत् । तन्न शब्दस्याकाशप्रभवत्वमभ्युपगन्तव्यम् ।
ननु चाऽस्य पौद्गलिकत्वेऽस्मदाद्यनुपलभ्यमानरूपाद्याश्रयत्वं न स्यात्पटादिवत् ; तन्न; द्वयणुकादिना हेतोद्यभिचारात् । नायनरश्मिषु जलसंयुक्तानले चानुद्भूतरूपस्पर्शवत् शब्दाश्रयद्रव्येऽस्मदाद्यनुपलभ्यमानानामप्यनुद्भूततया रूपादीनां वृत्त्यविरोधः । यथा च घ्राणेन्द्रियेणोपलभ्यमाने गन्धद्रव्येऽनुद्भूतानां रूपादीनां वृत्तिस्तथात्रापि । यथा च तैजसत्वात्पार्थिवत्वाच्यात्रानुपलम्भेपि रूपादीनामनुद्भूततयास्तित्वसम्भावना तथा शब्देपि पौद्गलिकत्वात् । न च पौद्गलिकत्वमसिद्धम्;
जब प्रभाव होता है तब शब्द का भी अभाव हो जाता है ऐसा कोई वैशेषिक के पक्ष में कहे तो वह भी गलत है, क्योंकि परवादी अभाव को तुच्छाभावरूप स्वीकार करते हैं, अतः तुच्छाभावरूप अदृष्टाभाव सामर्थ्य विहीन होने से शब्द के नाश का हेतु बन नहीं सकता, जैसे खरविषाण [ गधे का सींग ) तुच्छाभाव रूप है तो वह किसी को नष्ट करने की सामर्थ्य नहीं रखता है। इस तरह शब्द आकाश से उत्पन्न होता है ऐसा वैशेषिक आदि का कहना कथमपि सिद्ध नहीं होता है।
शंका-आप जैन शब्द को पौद्गलिक मानते हैं, किन्तु यह भी सिद्ध नहीं होता है, यदि शब्द पौद्गलिक होता तो हमारे द्वारा उसमें रहने वाले रूपादिक अनुपलभ्यमान नहीं होते, जैसे वस्त्रादि के रूपादि अनुपलभ्य नहीं होते अर्थात् शब्द पुद्गल से बना है तो वस्त्र आदि के समान उसके रूप आदि गुण उपलब्ध होने चाहिये ?
___ समाधान--यह कथन गलत है, जो रूपादि का आश्रयभूत हो अर्थात् जिसमें रूप आदि रहते हैं वह हमारे द्वारा नियम से उपलब्ध होवे ऐसा नहीं है, यदि ऐसा नियामक हेतु मानेंगे तो वह द्वचरणुक आदि के साथ व्यभिचरित होगा। क्योंकि द्वयणक आदि में रूपादि का प्राश्रयपना है किन्तु वे हमारे उपलब्ध नहीं होते है। अतः जिसमें रूपादि हो वह हमारे उपलब्ध हो ऐसा नियम नहीं बनता है । तथा जिसप्रकार वैशेषिक लोग नेत्र की किरणों में एवं जलसंयुक्त अग्नि में [गरम जल में क्रमशः रूप तथा स्पर्श को अनुभूत [अप्रगट] मानते हैं उसी प्रकार जैन शब्द के आश्रयभूत द्रव्य में रूपादि को अनुभूत मानते हैं जिस कारण कि वे हमारे द्वारा उपलब्ध नहीं हो पाते
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