Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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आकाशद्रव्य विचार:
२८७
नाप्यनेक:; तस्यैकस्मात्ताल्वाद्याकाशसंयोगादुत्पत्त्यसम्भवात् । न चाने कस्ताल्वाद्याकाशसंयोगः सकृदेकस्य वक्तुः सम्भवति, प्रयत्नस्यैकत्वात् । न च प्रयत्नमन्तरेण ताल्वादिक्रियापूर्वकोऽन्यतरकर्मजस्ताल्वाद्याकाशसंयोग: प्रसूते यतोऽनेकशब्दः स्यात् ।
अस्तु वा कुतश्चिदाद्य : शब्दोऽनेक:; तथाप्यसौ स्वदेशे शब्दान्तराण्यारभते, देशान्तरे वा ? न तावत्स्वदेशे; देशान्तरे शब्दोपलम्भाभावप्रसङ्गात् । अथ देशान्तरे; तत्रापि किं तद्देशे गत्वा, स्वदेशस्थ एव वा देशान्तरे तान्यसौ जनयेत् ? यदि स्वदेशस्थ एव; तहि लोकान्तेपि तज्जनकत्वप्रसङ्गः । प्रदृष्टमपि च शरीरदेशस्थमेव देशान्तरवत्तिमणिमुक्ताफलाद्याकर्षणं कुर्यात् । तथा च 'धर्माधमौं
प्रयत्न हुआ करता है जो कि एक समय में एक ही हो सकता है, तथा प्रयत्न के अनंतर तालु ओठ आदि वक्ताके मुखके भागों का संयोग होता है, फिर वाय तथा आकाश के साथ संयोग होता है यह प्रक्रिया क्रमिक एक एक हुआ करतो है अतः अनेक शब्द एक साथ उत्पन्न हो नहीं सकते ।
दुर्जन संतोष न्याय से मान भी लेवे कि किसी कारण से प्रथम शब्द अनेकरूप उत्पन्न होता है तथापि अपने उत्पत्ति के स्थान जो तालु आदि प्रदेश हैं वहां पर वह प्रथम शब्द शब्दांतरों को उत्पन्न करता है, अथवा स्वस्थान से अन्यत्र कहीं उत्पन्न करता है ? स्वोत्पत्ति प्रदेश में करता है ऐसा कहना शक्य नहीं, क्योंकि वहीं शब्दान्तरों की उत्पत्ति होगी तो अयन्त्र शब्दों की उपलब्धि होती है वह न हो सकेगी। दूसरा पक्ष-प्रथम शब्दद्वारा जो शब्दान्तर उत्पन्न कराये जाते हैं वे स्वोत्पत्ति प्रदेश से अन्य प्रदेश में कराये जाते हैं ऐसा कहे तो इस पक्ष में पुन: दो विकल्प उठते हैं-प्रथम शब्द देशांतर में जाकर शब्दांतरों को पैदा करता है अथवा अपने देश में स्थित होकर ही देशांतर में शब्दांतरों को पैदा करता है ? यदि स्वप्रदेश में स्थित होकर ही पैदा करता है तो लोक के अन्तभाग में भी उन शब्दांतरों को पैदा कर सकेगा। तथा यदि शब्द अपने जगह रहकर ही अन्य जगह शब्दों को पैदा कर सकता है तो अदृष्ट नामा आत्मा का गुण जिसे धर्माधर्म कहते हैं वह भी शरीर प्रदेश में स्थित होकर ही देश देशांतरों में होनेवाले मणि, मोती प्रादि पदार्थों को आकर्षित कर सकते हैं। और इसतरह स्वीकार करेंगे तो "धर्म अधर्म अपने प्राश्रय में संयुक्त है इनका अपना प्राश्रय जो आत्मा है वह सर्वगत है अत: पाश्रयांतर में आकर्षण आदि क्रिया को करते हैं" ऐसा कहना विरोध को प्राप्त होता है [ क्योंकि इस वाक्य में तो धर्म अधर्म नामा पदार्थ
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