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प्राकाशद्रव्य विचारः
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जनितवाय्वाकाशसंयोगानामसमवायिकारणानां समवायिकारणस्य चाकाशस्य सर्वगतस्य भावात् सकृत्सर्वदिक्कनानाशब्दोत्पत्त्यविरोधे शब्दस्यारम्भकत्वायोगः । यथैवाद्यः शब्दो न शब्देनारब्धस्ताल्वाद्याकाशसंयोगादेवासमवायिकारणादुत्पत्तेः, तथा सर्वदिक्कशब्दान्त राण्यपि ताल्बादिव्यापारजनितवाय्वाकाशसंयोगेभ्य एवासमवायिकारणेभ्यस्तदुत्पत्तिसम्भवात् । तथा च "संयोगाद्विभागाच्छब्दाच्च शब्दोत्पत्तिः" [ वैशे० सू० २।२।३१ ] इति सिद्धान्तव्याघातः ।
जैन- यह विशेषण भी कार्यकारी नहीं है, क्योंकि इस विशेषण के बढ़ा देने से अापके अनुमान में स्थित जो दृष्टांत "सुखादिवत्" है वह साधन विकल [ हेतु से रहित ] हो जायगा। क्योंकि इस दृष्टांत में बाह्य न्द्रिय से प्रत्यक्ष होना रूप हेतु का अंश नहीं है अर्थात् सुखादिक बाह्य इन्द्रिय से प्रत्यक्ष होने योग्य नहीं होने से यह साधन विकल दृष्टांत कहलायेगा ।
किञ्च, यदि वीचोतरंग न्याय से; शब्द से शब्द की उत्पत्ति होना आप लोग मानते हैं सो सबसे पहले वक्ता के व्यापार से जो शब्द उत्पन्न होता है वह एक उत्पन्न होता है अथवा अनेकरूप उत्पन्न होता है ? यदि एक उत्पन्न होता है तो नाना दिशाओं में एक साथ अनेक शब्दों की उत्पत्ति किसप्रकार होवेगी यह एक विचारणीय प्रश्न रह जाता है।
___वैशेषिक-संपूर्ण दिशा सम्बन्धी अर्थात् सर्वगत तालु अादि व्यापार से उत्पन्न हुए वायु और आकाश के संयोगस्वरूप असमवायी कारण तथा सर्वगत आकाशस्वरूप समवायीकारण सर्वत्र सर्वगत हैं, अतः एक साथ सब दिशाओं में अनेक शब्द उत्पन्न होने में अविरोध है।
जैन-यह ठीक नहीं, यदि इसतरह असमवायी आदि कारणों से शब्दों की उत्पत्ति होना स्वीकार करो तो वीचीतरंग न्याय से शब्द ही शब्दांतर का प्रारंभक [उत्पन्न करने वाला] है ऐसा नहीं कह सकेंगे ? जिसप्रकार पहला [प्रथम नम्बर का] शब्द; शब्द से उत्पन्न न होकर तालु, आदि के कारण से जन्य अाकाश संयोगरूप असमवायी कारण से उत्पन्न हुअा है, इसीप्रकार सर्व दिशासम्बन्धी शब्दांतर भी ताल
आदि के व्यापार से उत्पन्न हुए जो वायु और आकाश के संयोग है उन असमवायी कारणों से उत्पन्न हो सकेंगे। और इसतरह स्वीकार करने से "संयोगाद् विभागात्
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