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प्राकाशद्रव्यविचारः
२६३ अकारणगुणपूर्वकत्वं चासिद्धम् ; तथा हि-नाकारणगुणपूर्वकः शब्दोऽस्मदादिबाह्य न्द्रियग्राह्यत्वे सति गुणत्वात्पटरूपादिवत् । न चाणुरूपादिना सुखादिना वा हेतोर्व्यभिचारः; 'बाह्य न्द्रियग्राह्यत्वे सति' इति विशेषणात् । नापि योगिबाह्य न्द्रियग्राह्यणाणुरूपादिना; अस्मदादिग्रहणात् । नापि सामान्यादिना; गुणग्रहणात् ।
अकारण गुण पूर्वकत्व नामा हेतु भी प्रसिद्ध है, अर्थात्-पहले आपने कहा था कि शब्द में अकारण गण पूर्वक होना रूप स्वभाव है अतः पृथिवी आदि का विशेष गुण नहीं है इत्यादि सो बात गलत है, हम अनुमान से शब्द का अकारण पूर्वक होने का निषेध करते हैं-शब्द अकारण गुण पूर्वक नहीं होता है [पक्ष] क्योंकि हमारे बाह्य न्द्रिय द्वारा ग्राह्य होकर गुण रूप है, [हेतु] जैसे पट के रूपादि गुण अकारण गुण पूर्वक नहीं है [दृष्टांत] यद्यपि हम जैन शब्द को गुण स्वरूप नहीं मानते हैं किंतु पहले उसमें आकाश के गुणत्व का निषेध करने के लिये यह प्रसंग साधन उपस्थित किया है । इस अनुमान से शब्द में पहले आकाश गुणत्व का निषेध करके फिर गुणत्व मात्र का निषेध कर द्रव्यपना स्थापित करेंगे । अस्मदादि बाह्यन्द्रिय ग्राह्यत्वे सति गुणत्वात् हेतु का अणु के रूपादि के साथ या सुखादि के साथ व्यभिचार भी नहीं आता है, क्योंकि "बाह्य न्द्रिय ग्राह्यत्वे सति" यह जो विशेषण है वह इस दोष को हटाता है अणु के रूपादि गुण बाह्येन्द्रिय ग्राह्य नहीं होते हैं और शब्द बाह्य न्द्रियग्राह्य देखे जाते हैं अतः अणु के गुण तो अकारण गुण पूर्वक हो सकते हैं किन्तु शब्द रूप गुण [यहां प्रसंग वश शब्द को गुण रूप कहा जा रहा है] अकारण गुण पूर्वक नहीं हो सकता है। योगो जनके बाह्यन्द्रिय द्वारा ग्राह्य जो अणु के गुण हैं उसके साथ भी व्यभिचार नहीं होगा क्योंकि “अस्मदादि" विशेषण दिया है अर्थात् हम जैसे सामान्य व्यक्ति के बाह्यन्द्रिय द्वारा जो ग्राह्य है वह अकारण गुणपूर्वक नहीं होता ऐसा सिद्ध करना है । गुणत्व पद का ग्रहण होने से सामान्यादि पदार्थ के साथ भी व्यभिचार नहीं होता है अर्थात् सामान्यादि बाह्यन्द्रिय ग्राह्य तो है किन्तु गुण स्वरूप नहीं है । इसप्रकार "अस्मदादि बाह्य न्द्रिय ग्राह्यत्वे सति गुणत्वात्" यह हेतु निर्दोष सिद्ध हुआ और उसने शब्द को अकारण गुणपूर्वक होने का निषेध किया।
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