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प्रमेय कमलमार्तण्डे
विशेषणमनर्थकम् ; व्यवच्छेद्याभावात् । धर्मादेश्च क्षणिकत्वे स्वोत्पत्तिसमयानन्तरमेव विनष्टत्वात्ततो जन्मान्तरे फलं न स्यात् ।
शब्दाच्छब्दोत्पत्तिवद्धर्मादेर्धर्माद्युत्पत्ति:; इत्यप्ययुक्तम् ; तथाभ्युपगमाभावात्, तद्वदपरापरतत्कार्योत्पत्तिप्रसङ्गाच्च । 'परस्यानुकूलेष्वनुकूलाभिमानजनितोभिलाषः अभिलषितुरर्थाभिमुखक्रियाकारणमात्मविशेषगुणमाराध्नोति अनुकूलेष्वनुकूलाभिमानजनिताभिलाषत्वात् 'पात्मनोनुकूलेष्वनुकूलाभिमान जनिताभिलाषवत्' इत्यस्य च विरोधः, यस्माद्योऽसौ परस्यानुकूलेष्वनुकूलाभिमानजनिता
प्रत्यक्षत्वे सति ] व्यर्थ होता है । तथा यह भी बात है कि आप वैशेषिक धर्म अधर्म को भी क्षणिक मानेंगे तो, वे क्षणिक स्वभावी धर्म अधर्म [ पुण्य-पाप ] अपने उत्पत्ति के समय के अनन्तर ही नष्ट होने से अन्य जन्म में उन धर्मादि से फल मिलता है वह नहीं रहेगा।
वैशेषिक--अन्य जन्म में फल मिलने की बात बन जायगी, इस जन्म में जो धर्मादिक संचित हुए हैं वे क्षणिकत्व के कारण नष्ट हो जाने पर भी अन्य अन्य धर्मादिक उत्पन्न होते रहते हैं जैसे कि शब्द से अन्य अन्य शब्द उत्पन्न होता जाता है ?
जैन-यह कथन अयुक्त है आपके सिद्धांत में ऐसा धर्म से धर्म उत्पन्न होना माना नहीं है। दूसरी बात यह है कि यदि धर्मसे दूसरे दूसरे धर्म की उत्पत्ति होती रहती है ऐसा मानेंगे तो उस धर्मादिका कार्य या फल जो स्त्री चंदन आदि वस्तु की प्राप्ति होना रूप है वह भी अन्य अन्य उत्पन्न होता है ऐसा मानना पड़ेगा, किन्तु ऐसा नहीं है। अनुष्ठायक किसी पुरुष के अनुकूल वस्तुओं में यह अनुकूल है इसतरह के अभिमान [प्रतीति के कारण अभिलाष होता है और उस अभिलाषी पुरुष के इच्छित पदार्थ के अभिमुख करने का जो निमित्त है वह आत्मा के विशेष गुण को उत्पन्न करता है [सिद्ध करता है ] क्योंकि यह अनुकूल में अनुकूलता के अभिमान से जन्य अभिलाष है, जैसे स्वयं को इष्ट या अनुकूल पदार्थों में अनुकूलपने का अभिमान होकर उससे अभिलाषा हुआ करती है । इसप्रकार वैशेषिक धर्मादि के विषय में अनुमान उपस्थित करते हैं वह अनुमान गलत ठहरेगा, क्योंकि यह जो पर के अनुकूल वस्तु में अनुकूलता के अभिमान से जनित अभिलाषा और उससे जन्य अात्मविशेषगुण है, वह अभिलाषी
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