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प्राकाशद्रव्यविचार:
२७६ भिलाषजनित प्रात्मविशेषगुणो नासावभिलषितुरर्थाभिमुखक्रियाकारणम्, तत्समानस्य तत्कारणत्वात्, यश्च तरिक्रयाकारणं नासौ यथोक्ता भिलाषजनित इति ।
'इच्छाद्वषनिमित्तौ प्रवर्तक निवर्त्तको धर्माधर्मों, अव्यवधानेन हिताहित विषयप्राप्तिपरिहारहेतोः कर्मण : कारणत्वे सत्यात्म विशेषगुणत्वात्, प्रवर्तकनिवर्तकप्रयत्नवत्' इत्यत्र हेतोय॑भिचारश्चजन्मान्तरफलोदययोर्धर्माधर्मयोः अव्यवधानेन हिताहितविषयप्राप्तिपरिहारहेतोः कर्मण : कारणत्वे
पुरुष को पदार्थ के अभिमुख कराने में कारणरूप सिद्ध न होकर उसके समान दूसरा ही धर्मादिरूप गुण कारणरूप सिद्ध होता है । तथा जो धर्म से धर्म इत्यादि परम्परा से उत्पन्न हुया अन्तिम धर्म अर्थाभिमुख कराता है वह पूर्वोक्त अभिलाषा से तो उत्पन्न नहीं हुआ है।
धर्मादिक के विषय में वैशेषिक दूसरा और भी एक अनुमान प्रयुक्त करते है कि "इच्छा और द्वष है निमित्त जिनका ऐसे ये धर्म तथा अधर्म नामा गुण हुआ करते हैं ये क्रमशः प्रवृत्ति और निवृत्ति को कराने वाले होते हैं, क्योंकि अव्यवधानपने से ये हित की प्राप्ति और अहित का परिहार के हेतु हैं अर्थात् धर्म तो हित प्राप्ति और अहित परिहार का कारण है तथा अधर्म अहित की प्राप्ति और हित को हटानेवाला है, एवं कर्मका कारण होकर आत्माका विशेषगुण है, जैसे प्रवर्तक निवर्त्तक प्रयत्न है" इस अनुमान में धर्मादिको क्षणिक मानने से व्यभिचार [ अनैकान्तिकता ] आता है, कैसे सो ही बताते हैं जो हिताहित प्राप्ति परिहार में निमित्त है वह इच्छा द्वष से जन्य है ऐसा इस अनुमान का जो कहना है वह प्रसिद्ध ठहरता है क्योंकि जन्मांतर में फलोदय वाले जो धर्म तथा अधर्म हैं उनमें अव्यवधानपने से हिताहित की प्राप्ति परिहार का कारणपना एवं कर्मका कारणपना होकर आत्मा का विशेष गुणत्व तो मौजूद है किन्तु ये धर्म अधर्म इच्छा और द्वेष से जनित नहीं है [ अपितु पूर्व पूर्व के धर्मादि से जनित है ] अतः निश्चित होता है कि शब्द से शब्दकी उत्पत्ति होना सिद्ध नहीं होता तथा उसी के समान धर्म से धर्मकी उत्पत्ति होना भो सिद्ध नहीं होता है । धर्म अधर्म को क्षणिक मानेंगे तो अन्य जन्म में इनसे फल की प्राप्ति होना असम्भव हो जाता है इसलिये भी पाप वैशेषिक को धर्माधर्मरूप अदृष्ट को अक्षणिक स्वीकार करना होगा, और जब आप इन्हें उपर्युक्त सदोषता के कारण अक्षणिक स्वीकार करेंगे
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