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प्रमेयकमलमार्तण्डे
परमाण्वाकारं ज्ञानं तद्ग्राहकम्, एकैकपरमाण्वाकारमने वा ? प्रथम विकल्पे चित्रकज्ञानवद्रूपाद्यात्मकैकद्रव्यप्रसिद्धिरनिषेध्या स्यात् । द्वितीय विकल्पे तु परस्परविविक्तज्ञानपरमाणुप्रतिभासस्यासंवेदनात्सकलशून्यतानुषंगः।
___ अथ तद्ग्रहणोपायासम्भवाद्रूपादिमतो द्रव्यस्याभावः; तन्न; 'यम हमद्राक्षं तमेहि स्पृशामि' इत्यनुसन्धानप्रत्ययस्य तद्ग्राहिण: सद्भावात् । न च द्वाभ्यामिन्द्रियाभ्यां रूपस्पर्शाधारकार्थग्रहणं विना प्रतिसन्धानं न्याय्यम् । रूपस्पर्शयोश्च प्रतिनियतेन्द्रियग्राह्यत्वादेतन्न सम्भवति । चेतनत्वाच्चात्मन: स्मरणादिपर्यायसहायस्य अविपरभागावयवव्यापित्व ग्रहण मप्य वयविद्रव्यस्योपपन्नम् । प्रसाधितं
को जानता है, अथवा एक एक परमाणु के आकार परिणत हुए अनेकों ज्ञान उन अनेक अनंश परमाणुगों के संचयभूत द्रव्य को जानते हैं ? प्रथम विकल्प की बात कहो तो अापके चित्र ज्ञान के सदृश रूप, रस, गंध आदि अनेक धर्म या अवयव स्वरूप एक द्रव्य सिद्ध होगा, उसका निषेध नहीं कर सकते हैं। द्वितीय विकल्प की कहो तो भी गलत है, लोक में ऐसा देखा नहीं जाता कि एक ही वस्तु में परस्पर में सर्वथा विविक्त [पृथक् ] ऐसा ज्ञान परमाणुओं को प्रतिभासित करता हो । जब ऐसे विविक्त परमाणों के ग्राहक ज्ञान सिद्ध नहीं होंगे तो वे ज्ञेय पदार्थ भी सिद्ध नहीं होंगे और अंत में सकल शून्यता छा जायगी !
शंका- दूसरा पक्ष जो शुरू में कहा था कि रूपादिमान पदार्थ या अवयवी पदार्थ को ग्रहण करने का उपाय असंभव है अतः रूपादिमान पदार्थ नहीं है सो यही पक्ष माना जाय ?
___समाधान-यह बात भी गलत है, जिसको मैंने देखा था उसीका अब मैं स्पर्श कर रहा हूं। इस तरह का अनुसंधान करने वाला प्रत्यभिज्ञान उस रूपादिमान द्रव्य का ग्राहक मौजूद ही है। कोई कहे कि चक्षु तथा स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा ही प्रतिसंधान करने वाला प्रत्यभिज्ञान हो जायगा रूप और स्पर्श के आधारभूत एक द्रव्य की क्या अावश्यकता है ? सो ऐसी बात नहीं है, क्योंकि रूप और स्पर्श प्रतिनियत इन्द्रिय के विषय है, अर्थात् रूप को विषय करने वाली चक्षु स्पर्श को विषय नहीं करती और स्पर्श को विषय करने वाली स्पर्शन इन्द्रिय रूप को विषय नहीं करती फिर परस्पर संधान-जोड़ कौन करेगा ? हां यह तो हो सकता है कि आत्मा स्वयं चेतन है उसको यदि स्मरण आदि ज्ञानरूप पर्याय की सहायता है तो इधर का और उधर के भागों में
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