Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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आकाश द्रव्यविचार रा
२५७
इत्युच्यमाने हि परमाणुभिर्व्यभिचारः, तन्निवृत्त्यर्थम् 'इन्द्रियप्रत्यक्षत्वात्' इत्युक्तम् । तथापि घटादिना व्यभिचार:, तन्निरासार्थमेकविशेषणम् । 'एकेन्द्रियप्रत्यक्षत्वात्' इत्युच्यमाने आत्मना व्यभिचार:, तन्निवृत्त्यर्थं बाह्यविशेषणम् । रूपत्वादिना व्यभिचारपरिहारार्थं च 'सामान्यविशेषवत्त्वे सति' इति विशेषणम् ।
तथा, कर्मापि न भवत्यसौ संयोगविभागाकारणत्वाद्रूपादिवदेवेति । तस्मात्सिद्ध ं प्रतिषिध्यमानद्रव्यकर्मभावस्वं शब्दस्य । 'सत्तासम्बन्धित्वात्' इत्युच्यमाने च द्रव्यकर्मभ्यामनेकान्तः, तन्निवृत्त्यर्थं
विशेषवानतया एक द्रव्यरूप है किन्तु गुणरूप तो नहीं है सो इस व्यभिचार को दूर करने के लिये इन्द्रिय प्रत्यक्षत्वात् - जो इन्द्रिय प्रत्यक्ष हो - इन्द्रिय द्वारा ग्रहण होता हो वह शब्द है ऐसा कहा है । सामान्य विशेषवान होकर इन्द्रिय प्रत्यक्ष हो वह एक द्रव्य है ऐसा कहने से भी दोष आता है, क्योंकि घट पट आदि पदार्थ सामान्य विशेषवान तथा इन्द्रिय प्रत्यक्ष हैं किन्तु एक द्रव्यरूप तो नहीं है अतः जो एक ही इन्द्रिय द्वारा प्रत्यक्ष हो सके घटादि के समान अनेक इन्द्रिय द्वारा प्रत्यक्ष न हो सके वह शब्द है ऐसा खुलासा करने के लिए "एक इन्द्रिय प्रत्यक्षत्वात् " ऐसा हेतु में एक पद का कलेवर बढ़ाया गया है । जो एक इन्द्रिय प्रत्यक्ष है वह शब्द है ऐसा कहना भी ठीक नहीं होता, क्योंकि आत्मा भी एक ही इन्द्रिय द्वारा प्रत्यक्ष है, अतः इस दोष को दूर करने के लिए "बाह्य" विशेषण दिया है अर्थात् श्रात्मा एक इन्द्रिय प्रत्यक्ष तो है किन्तु बाह्य इन्द्रिय द्वारा प्रत्यक्ष नहीं होता, अन्तरंग मनरूप इन्द्रिय द्वारा प्रत्यक्ष होता । इस प्रकार परमाणु, आत्मा आदि के साथ व्यभिचार नहीं होवे इस कारण से हेतु के विशेषण बढ़ाये गये हैं और इस तरह यह सामान्य विशेषवत्वे सति बाह्य एक इन्द्रिय-प्रत्यक्षत्वात् हेतु अपने साध्य को [ शब्द आकाश द्रव्य का गुण है इस बात को ] सिद्ध करा देता है ।
शब्द को छहों पदार्थों में से कर्म पदार्थरूप भी नहीं मान सकते हैं, क्योंकि यह संयोग और विभाग का कारण नहीं है, जैसे कि रूपादिक नहीं है, अर्थात् जैसे रूपादिक गुणरूप होने से संयोग आदि के कारण नहीं होते वैसे शब्द गुणरूप है ग्रतः संयोगादिक्रिया के हेतु नहीं हैं । इसतरह से निश्चित होता है कि शब्द में द्रव्यपना तथा कर्मपना प्रतिषिध्य है " शब्दो गुणः प्रतिषिध्यमानद्रव्य - कर्मभावत्वे सति सत्तासम्बन्धित्वात्" ऐसा पहले अनुमान दिया था, इस अनुमान में "सत्तासम्बन्धित्वात्" इतना ही हेतु देते तो द्रव्य और कर्म के साथ व्यभिचार होता अर्थात् सत्ता का सम्बन्ध
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