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आकाश द्रव्यविचारः
नाप्याकाशादि; सर्वथा नित्यनिरंशत्वादिधर्मोपेतस्यास्याप्यप्रतीतेः । ननु चाकाशस्य तद्धर्मोपेतत्वं शब्दादेव लिङ्गात्प्रतीयते ; तथाहि-ये विनाशित्वोत्पत्तिमत्त्वादिधर्माध्यासितास्ते क्वचिदाश्रिता
वैशेषिक दर्शन में प्रकाशादि द्रव्य की सिद्धि भी नहीं होती है, आकाश को वे लोक नित्य, एक निरंश प्रादि धर्म युक्त मानते हैं सो यह प्रतीत नहीं होता है ।
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वैशेषिक - आकाश नित्य निरंशादि धर्म युक्त है इस बात को शब्द रूप हेतु से सिद्ध करते हैं— जो पदार्थ नष्ट होना, उत्पन्न होना इत्यादि धर्मात्मक होते हैं वे कहीं पर प्राश्रित रहा करते हैं, जैसे घट आदि पदार्थ अपने अवयवों में प्रश्रित रहा करते हैं, शब्द भी उत्पन्न होना तथा नष्ट होना आदि धर्म वाले हैं, अतः वे कहीं पर श्राश्रित रहते हैं । तथा शब्द गुण स्वरूप होने से भी कहीं पर आश्रित रहते हैं, जैसे रूप रस प्रादि गुण रूप होने से श्राश्रय में रहते हुए देखे जाते हैं । शब्दों को गुण स्वरूप मानना प्रसिद्ध भी नहीं है, अनुमान से ऐसा ही प्रतीत होता है, शब्द नामा
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