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प्रमेयकमलमार्तण्डे अवयवों में रहता है । सो यह कथन भी ठीक नहीं, क्योंकि प्रथम तो समवाय की सिद्धि नहीं है, दूसरी बात अवयवी के रहने का एक देश और सर्व देश को छोड़कर तीसरा प्रकार नहीं है, अत: जहां दोनों प्रकारों का निषेध किया वहां अवयवी का सर्वथा अभाव ही सिद्ध होगा। फिर तो बौद्धमत का प्रसंग प्राप्त होगा । अत: अवयवी अवयवों से कथंचित् भिन्न एवं कथंचित् अभिन्न है ऐसा स्वीकार करना चाहिए। वैशेषिक के पृथ्वी आदि द्रव्यों को चार संख्या भी सिद्ध नहीं होती, क्योंकि इनमें सर्वथा भेद नहीं है। चन्द्रकांतमणि से जल उत्पन्न होता है, जल से मोतीरूप पृथिवी उत्पन्न होती है, पृथ्वीरूप सूर्यकांतमणि से अग्नि प्रादुर्भूत होती दिखायी देती है, अतः इन पृथ्वी आदि में अत्यन्त भेद सिद्ध नहीं हो सकता। इन पृथ्वी आदि सभी में स्पर्श, रस, गंध और वर्ण ये चारों हो गुण रहा करते हैं अतः इनमें से पृथ्वी में चारों गुण हैं, जल में तीन ही हैं इत्यादि कथन असत् है ।
इस प्रकार अवयवों से सर्वथा पृथक् अवयवी की सिद्धि नहीं होती है, और पृथ्वी जल आदि में सर्वथा भेद सिद्ध नहीं होता है ।
॥ सारांश समाप्त ॥
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