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प्रमेयकमलमार्तण्डे ततो मृत्पिण्डादौ घटादिवच्चन्द्रकान्तादौ जलादेरप्यप्रतीतितोऽभावात्, ग्रात्यन्तिक भेदे चोपादानोपादेयभावासम्भवात्, 'पर्याय भेदेनान्योन्यं पृथिव्यादीनां भेदो रूप रसगन्धस्पर्शात्मकपुद्गल द्रव्य रूपतया चाभेदः' इत्यनवद्यम् । रूपादिसमन्वयश्च गुणपदार्थ परीक्षायां चतुर्णामपि समर्थयिष्यते । तन्न नित्यादिस्वभावमात्यन्तिकभेदभिन्नं च पृथिव्यादिद्रव्यं घटते ।
।। अवयविस्वरूपविचारः समाप्त: ।।
मान्यता स्वीकार करते हैं । इस दोष को दूर करने के लिए जैसे मिट्टी के पिण्ड आदि में घट आदिक प्रतीत नहीं होने से उनका वहां अभाव ही माना जाता है वैसे ही चन्द्र कान्त आदि में जलादिक प्रतीत नहीं होने से उनका वहां अभाव ही मानना चाहिए, साथ में यह भी निश्चय करना कि इन पृथिवी आदि में आत्यंतिक भेद नहीं है, अन्यथा इनका उपादान-उपादेय भाव नहीं बनता, अतः यहां स्याद्वाद की ही शरण लेनी होगी कि पथिवी, जल आदि द्रव्य परस्पर में पर्यायदृष्टि से तो भिन्न हैं अर्थात् जब वस्तु पृथिवी पर्याय रूप है तब उसमें अन्य जल आदि पर्याय नहीं है, तथा इन्हीं पृथिवी आदि में रूप, रस, गन्ध, स्पर्श स्वरूप पुद्गल द्रव्य दृष्टि से देखते हैं तो अभेद सिद्ध होता है, इस तरह ये कथंचित् भेदाभेद को लिये हुए हैं । वैशेषिक पृथिवी में रूपादि चारों गुण, जल में तीन गुण इत्यादि रूप से मानते हैं किन्तु इन चारों ही द्रव्यों में स्पर्श, रस, गंध और वर्ण रहते हैं, चारों का समन्वय सबमें है, इस विषय में गुण नामा वैशेषिक के पदार्थ की परीक्षा करते समय आगे कहने वाले हैं। इस सब कथन का सार यही हुआ कि वैशेषिक द्वारा मान्य सर्वथा नित्य आदि स्वभाव वाला तथा अत्यन्त भेद स्वभाव वाला पृथिवी आदि द्रव्य सिद्ध नहीं होता है ।
॥ अवय विस्वरूपविचार समाप्त ।।
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