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वैशेषिक के अवयविस्वरूप के खंडन का सारांश
वैशेषिक तन्तु आदि अवयवों से वस्त्र आदि अवयवी को सर्वथा पृथक् मानते हैं, किन्तु यह मान्यता प्रतीति विरुद्ध है । तन्तु और वस्त्र सर्वथा पृथक् दिखायी नहीं देते । अवयव और अवयवी में समान देशता है अतः वे पृथक् नहीं दिखते ऐसा कहना भी गलत है । समान देशता दो प्रकार की है शास्त्रीय और लौकिक । शास्त्रीय समान देशता तो इनमें नहीं है, क्योंकि आपने तन्तु आदि अवयव और वस्त्र आदि अवयवी इन दोनों का देश पृथक् माना है, तन्तु का कपास प्रवेणीरूप देश है और वस्त्र का तन्तुरूप देश है । लौकिक समान देशता तो कुडे में बेर सदृश हुग्रा करती है।
तथा कुछ अवयव दिखने पर अवयवी प्रतीत होता या सम्पूर्ण अवयव दिखने पर अवयवी प्रतीत होता है ? प्रथम पक्ष कहो तो कुछ अवयव प्रतीत होते ही अवयवी दिखायी देना चाहिए, किन्तु दिखायी नहीं देता । सभी अवयवों के दिखायी देने पर अवयवी की प्रतीति होती है ऐसा कहना अशक्य है क्योंकि संपूर्ण अवयवों का ग्रहण हम जैसे असर्वज्ञ को सम्भव नहीं है ।
तथा वैशेषिकाभिमत अवयवी द्रव्य सर्वथा निरंश एवं एक है वह अनेक अवयवों में किस प्रकार रह सकता है ? आपका अवयवी निरंश है तो एक ही वस्त्रादि रूप अवयवी में रक्त [रंग युक्तता] और अरक्त [रंग रहितता] पना दिखाई देता है वह कैसे ? यह रक्तारक्तत्व तो अवयवो में विभाग सिद्ध कर रहा है। आपका कहना है कि वस्त्र में रक्तत्व [ लालिमा ] कुकुमादि द्रव्य के संयोग से प्राता है, संयोग अव्यापी गुण है अतः उसके निमित्त से रक्तारक्तपना प्रतीत होता है, सो यह कथन असत्य है, जब वस्त्रादि अवयवी निरंश है तो वह कहीं कु कुमादि से व्याप्त और कहीं अव्याप्त कैसे हो सकेगा।
अापका कहना है कि अवयवों में अवयवी एकदेश या सर्वदेश से रहने का प्रश्न ही नहीं करना चाहिए, क्योंकि अवयवी एक निरंशभूत समवाय सम्बन्ध से
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