Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 3
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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अर्थ के सामान्यविशेषात्मक होने का सारांश
वैशेषिक:-प्रत्येक पदार्थ सामान्य विशेषात्मक मानना ठीक नहीं, कोई पदार्थ सामान्यात्मक होता है और कोई विशेषात्मक । प्रतिभास के भेद से सामान्य और विशेष में अत्यन्त भेद सिद्ध होता है अर्थात् सामान्य की झलक अलग है और विशेष की अलग है । तथा सामान्य को जानने वाला प्रमाण पृथक् है और विशेष को जानने वाला पृथक् है इसलिए सामान्य और विशेष में विरुद्ध धर्मपना भी है। हम अवयव और अवयवी को भी अत्यन्त भिन्न मानते हैं । तन्तुरूप अवयव तो स्त्री आदि के द्वारा निर्मित हैं, और वस्त्र रूप अवयवी जुलाहा द्वारा बनाया जाता है इस तरह कर्ता भिन्न होने से अवयवों से अवयवी भिन्न है ऐसा समझना चाहिए। तथा अवयव पूर्ववर्ती है भिन्न कार्य करते हैं उनकी शक्ति भी भिन्न है, तथा अवयवी उत्तर कालवर्ती है उसकी शक्ति और कार्य भिन्न है, तो उन दोनों को पृथक् क्यों न माना जाय ? जैन तन्तु और वस्त्र में तादात्म्य मानते हैं किन्तु वह सिद्ध नहीं होता। जैन अवयव और अवयवी को भेदभेदात्मक मानते हैं सो उसमें पाठ दोष पाते हैं, संशय १ विरोध २ वैयधिकरण ३ संकट ४ व्यतिकर ५ अनवस्था ६ अभाव ७ अप्रतिपत्ति ८ । अब इन दोषों को बताते हैं-अवयव और अवयवी भेदाभेदात्मक है या कोई भी वस्तु दोनों रूप मानते हैं तो उसमें सबसे पहले संशय होगा कि वह वस्तु ऐसी है कि वैसी। भेद और अभेद एक दूसरे से विरुद्ध होने से विरोध दोष पाता है। भेद का आधार और अभेद का आधार पृथक होने से वैयधिकरण दोष हा । उभयदोष भी वैयधिकरण के समान है।
भेदाभेद एक साथ वस्तु में आने से संकट दोष है और एक दूसरे के विषय होने से व्यतिकर दोष है, किसी अवस्था से भेद होगा वह कथंचित् ही रहेगा अतः अनवस्था आती है। इससे फिर वस्तु की अप्रतिपत्ति होगी। अतः अवयव, अवयवो, गुण, गुणी, क्रिया, क्रियावान्, भेद, अभेद, सत्व, असत्व इत्यादि सबको पृथक्-पृथक्
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