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प्रमेयकमलमार्तण्डे किं तत्राव्याप्तं येनाऽव्याप्यवृत्ति : संयोगो भवेत् ? अव्याप्तौ वा भेदप्रसङ्गो व्याप्ताव्याप्तस्वरूपयोविरुद्धधर्माध्यासेनेकत्वायोगात् ।
किंच, अस्याव्याप्य वृत्तित्वं सर्वद्रव्याव्यापकत्वम्, एकदेशवृत्तित्वं वा ? न तावत्प्रथम : पक्षः; द्रव्यस्यैकस्य सर्वशब्दविषयत्वानभ्युपगमात् । अनेकत्र हि सर्वशब्दप्रवृत्तिरिष्टा। नापि द्वितीयः; तस्यैकदेशासम्भवात्, अन्यथा सावयवत्वप्रसंगात् । ततो नास्त्यवयवी वृत्तिविकल्पाद्यनुपपत्तेरिति ।
ननु चावयविनो निरासे यत्साधनं तत्कि स्वतन्त्रम्, प्रसंगसाधनं वा ? स्वतन्वं चेत् ; धर्मिसाध्यपदयोाघातः, यथा-'इदं च नास्ति च' इति । हेतोराश्रयासिद्धत्वञ्च ; अवयविनोऽप्रसिद्ध:। न च
__ जैन-यह कथन असार है, क्योंकि यदि वस्त्र आदि द्रव्य निरंश एक ही है तो उसकी कुकुम आदि द्रव्यके साथ क्या अव्याप्ति रही जिससे अव्याप्यवृत्ति स्वभाव वाला संयोग उसमें होवेगा ? अभिप्राय यह है कि जब अवयवी निरंश एक है तो उसका कौनसा भागांश,बचा कि जो रंग संयोग युक्त नहीं हुआ है ? अर्थात् कोई अंश अवशेष नहीं है। यदि कुकुमादि से अव्याप्त कोई भाग अवशेष है तो उस अवयवी में भेद मानना ही पड़ेगा । क्योंकि व्याप्तस्वरूप और अव्याप्तस्वरूप इस तरह विरुद्ध दो धर्मों से युक्त होकर अनेक हो कहलायेगा, फिर उसमें एकत्व रह नहीं सकेगा।
यह भी बताना चाहिए कि वस्त्र में कु कुमादि द्रव्य का अव्याप्यवृत्ति वाला संयोग रहता है ऐसा आपने' कहा सो अव्याप्यवृत्ति किसे कहना, सर्व द्रव्य में अव्यापक रहना, या एकदेश में रहना ? प्रथम पक्ष तो बनता नहीं, एक द्रव्य को सर्व शब्द से कहते ही नहीं, एक द्रव्य सर्वशब्द का विषय होना आपने स्वीकार किया नहीं, सर्व शब्द की प्रवृत्ति अनेक द्रव्य में हुआ करती है ऐसा आपके यहां माना है। दूसरा पक्ष एक देश में रहना अव्याप्यवृत्तिपना कहलाता है, ऐसा कहो तो भी नहीं बनता, उस निरंश अवयवी के एकदेश होना ही असम्भव है, यदि माने तो उसे सावयव कहना होगा। अंततोगत्वा यही कहना पड़ता है कि वैशेषिकाभिमत अवयवी पदार्थ नहीं है, क्योंकि वह किस स्वभाव वाला है, अपने अवयवों में कैसे रहता है इत्यादि कुछ भी सिद्ध नहीं हो पाता है।
वैशेषिक - अवयवी का खण्डन करने के लिये आप जैन कौनसा अनुमान प्रमाण उपस्थित करेंगे, स्वतन्त्र अर्थात् पक्ष, हेतु, दृष्टान्त आदि जिसमें हो ऐसा अनुमान या
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