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अर्थस्य सामान्यविशेषात्मकत्ववादः
२१७ कार्याणां सकृदेवोत्पत्तिप्रसङ्गोऽविकलकारणत्वात् । प्रयोगः--येऽविकलकारणास्ते सकृदेवोत्पद्यन्ते यथा समानसमयोत्पादा बहवोऽकुराः, अविकलकारणाश्चाणुकार्यत्वेनाभिमता भावा इति । तथाभूतानामप्यनुत्पत्तौ सर्वदानुत्पत्तिप्रसक्तिविशेषाभावात् ।
।। अर्थस्य सामान्य विशेषात्मकत्ववाद: समाप्तः ।।
ही ज्ञान में अनेकाकारपना उपलब्ध होता है। आत्मा आदि पदार्थों में अनेक धर्मत्व सिद्ध करने हेतु चौथा उदाहरण मेचक ज्ञान का है, जैसे मेचक ज्ञान में [ चितकबरा ज्ञान] हरा, पीला, लाल आदि रंग स्वरूप आकार प्रतिबिंबित होते हैं, फिर भी वह ज्ञान एक ही है, इस मेचक ज्ञानादि को किसी ने भी अनेक नहीं माना है, ठीक इसी प्रकार प्रात्मा, आकाश, घट, पट आदि संपूर्ण चराचर जगत के पदार्थ अनेकान्तात्मकअनेकधर्मात्मक होते हैं, समान गुण धर्मों की क्या बात है किन्तु विषम अर्थात् विरोधी धर्म भी एक वस्तु में अबाधपने से निवास करते हैं, अथवा यों कहिये कि वस्तु स्वयं ही उस रूप है, जैनाचार्य तो जैसी वस्तु ज्ञान में प्रतिभासित हो रही है वैसी बतलाते हैं वे मात्र प्रतिपादन करने वाले हैं, वस्तु जब स्वयं अनेक धर्मों को अपने में धार रही है तो प्राचार्य या प्रतिपादक क्या करे ? उसका जैसा स्वरूप है वैसा ही कहना होगा। विपरीत प्रतिपादन तो कर नहीं सकते । “यदीदं पदार्थेभ्यः स्वयं रोचते तत्र के वयम्" अन्त में यही निश्चय हुया कि प्रात्मा आदि सम्पूर्ण पदार्थ कथंचित् भेदाभेदात्मक, नित्यानित्यात्मक सत्वासत्वात्मक होते हैं ।
॥ पदार्थों का सामान्यविशेषात्मकपने का प्रकरण समाप्त ।।
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