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अवयविस्वरूपविचारः
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नुसारेणास्य प्रवृत्त:, प्रत्यक्षस्य च तद्ग्राहकत्वप्रतिषेधात् । नाप्यात्मा अर्वापरभागावयवव्यापिस्वमवयविनो ग्रहीतु समर्थः; जडतया तस्य तद्ग्राहकत्वानुपपत्त:, अन्यथा स्वापमदमूर्छाद्यवस्थास्वपि तद्ग्राहित्वानुषंग: । प्रत्यक्षादिसहायस्याप्यात्मनोवयविस्वरूपग्राहित्वायोगः; अवयविनो निखिलावयवव्याप्तिग्राहित्वेनाध्यक्षादेः प्रतिषेधात् । - ननु चार्वाग्भागदर्शने सत्युत्तरकालं परभागदर्शनानन्तरस्मरणसहकारीन्द्रियजनितं स एवायम्' इति प्रत्यभिज्ञाज्ञानमध्यक्षमवयविन: पूर्वापरावयवव्याप्तिग्राहकम् ; तदप्यसाम्प्रतम् ; प्रत्यभिज्ञाज्ञानेऽ
समाधान--ऐसा कहना भी शक्य नहीं, प्रत्यक्ष के अनुसार ही स्मरणज्ञान प्रवृत्त हुआ करता है, अर्थात् प्रत्यक्षज्ञानगम्य वस्तु में स्मरण पाता है ऐसा नियम है और पर भाग के अवयव एवं तद सम्बन्धी अवयवो का प्रत्यक्ष द्वारा ग्रहण होना निषिद्ध हो चुका है।
शंका--अर्वाक भाग और परभाग के अवयवों में अवयवी का व्यापकपना तो आत्मा द्वारा ग्रहण हो जायेगा ?
समाधान--यह भी असंभव है, ग्राप वैशेषिक प्रात्मा को जड़ मानते हैं सो वह ग्राहक कैसे बने ? [ वैशेषिक आदि परवादी आत्मा में स्वयं चैतन्य नहीं मानते
चैतन्य के समवाय से चैतन्य मानते हैं, अत: उनके यहां प्रात्मा जड़ जैसा ही पदार्थ सिद्ध होता है ] तथा आत्मा को अवयवी आदि पदार्थ का ग्राहक माना जाय तो, निद्रित अवस्था में, मदोन्मत्त अवस्था में, मूर्छादि अवस्था में भी आत्मा उन पदार्थों का ग्राहक बनने लगेगा ?
शंका--प्रात्मा स्वयं तो पदार्थों का ग्राहक नहीं हो सकता किन्तु प्रत्यक्ष आदि ज्ञानकी सहायता लेकर उस अवयवी आदिको जानता है ।
समाधान- ऐसा होना भी असम्भव है, क्योंकि अवयवी संपूर्ण अवयवों में व्याप्त है, उन सम्पूर्ण अवयवों को ग्रहण करने वाला कोई प्रत्यक्षादि ज्ञान नहीं है, फिर आत्मा भी उनकी सहायता से उन अवयवी आदि को कैसे जान सकता है, नहीं जान सकता।
वैशेषिक-पहले तो इस तरफ के भाग का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, फिर उत्तरकाल में उधर के भाग का दर्शन-प्रत्यक्ष ज्ञान होता है सो इसमें पूर्वका देखा
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