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अर्थस्य सामान्यविशेषात्मकत्ववादः
२१५ सङ्कोचितेतरस्वभावापेक्षया व्यावृत्त्यनुगमात्मकत्वं प्रत्यक्षप्रतिपन्न विरोधमध्यास्ते ।
ननु सुखाद्यवस्थानामात्मनोऽत्यन्त भेदात्तद्वयावृत्तावप्यात्मनः किमायातं येनास्यापि व्यावृत्त्यात्मकत्वं स्यात् ? इत्यप्यपेशलम् ; सुखाद्यात्मनोरत्यन्तभेदस्य प्रथमपरिच्छेदे प्रतिविहितत्वात् । ननु चाकारवैलक्षण्येप्यात्मसुखादीनामनानात्वे अन्यत्राप्यन्यतोऽन्यस्यान्यत्वं न स्यात; तदप्य विचारितरमणीयम् ; तद्वत्तादात्म्येनान्यत्रान्यस्य प्रमाणतोऽप्रतोतेः । प्रतीतौ तु भवत्येवाकारनानात्वेप्यनानात्वम् प्रत्यभिज्ञाज्ञानवत्, सामान्य विशेषवत्, संशयज्ञानवत्, मेचकज्ञानवद्वेति ।
जिस प्रकार सर्प की कुण्डलाकार अवस्था और कुण्डलाकार रहित अवस्था इनमें विरोध नहीं पाता, क्योंकि प्रत्यक्ष से ऐसा दिखाई देता है, अथवा अंगुली आदि का फैलाना और संकुचित होना रूप स्वभाव प्रत्यक्ष से उपलब्ध होने से विरोध को अवकाश नहीं है उसी प्रकार आत्मा में व्यावृत्ति और अनुगमात्मकपना प्रत्यक्ष से प्रतीत होता है । इसमें कोई भी विरुद्ध बात नहीं है।
वैशेषिक-सुख, दुःख आदि अवस्थायें आत्मा से अत्यन्त भिन्न हैं अतः यदि वे सुखादिक व्यावृत्ति स्वरूप हो तो भी उससे आत्मा में क्या विशेषता आयेगी जिससे कि प्रात्मा को भी व्यावृत्ति स्वरूप माना जा रहा है ?
____ जैन – यह कथन असुन्दर है, सुख, दुःख आदि धर्म आत्मा से अत्यन्त भिन्न नहीं हैं, आप इन्हें सर्वथा भिन्न मानते हैं किन्तु इसका प्रथम अध्याय में ही भली प्रकार से निराकरण कर आये हैं ।
वैशेषिक-आत्मा और सुख दुःखादिक इनमें आकारों [ झलक ] की विलक्षणता [ विसदृशता ] होते हुए भी अभिन्नता मानी जाय तो अन्य घट पट आदि पदार्थ भी परस्पर में अभिन्न मानने पड़ेंगे ? क्योंकि आकारों की विलक्षणता होते हुए भी भेद नहीं होता ऐसा आप कह रहे ।
__ जैन-यह कथन बिना सोचे किया गया है, जिस प्रकार आत्मा और सुख दुःख आदि का परस्पर तादात्म्य अनुभव में आता है, वैसा तादात्म्य घट पटादि पदार्थों में अनुभव में नहीं आता है तथा अाकारों की विलक्षणता की जो बात है उस विषय में यह समझना चाहिए कि सर्वत्र प्राकारों की विलक्षणता या नानापना होने से वस्तुओं में भेद ही हो, नानापना ही होवे सो बात नहीं है, घट पट आदि में तो प्राकारों
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